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पुण्य और पाप : आस्रव के रूप में
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कर्मों का आवागमन अयोग-अवस्था से पूर्व तक
सांसारिक जीव जब तक अयोगी-अवस्था को नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक 'कर्म' एक या दूसरे रूप में उसके जीवन में आते-जाते रहते हैं। सयोगी केवली अवस्था तक कमों का आवागमन जारी रहता है; क्योंकि जब तक जीव के साथ तन लगा हुआ है, तब तक उसे शरीर से कोई न कोई क्रिया या प्रवृत्ति करनी ही पड़ती है। संसार के प्रत्येक जीव के द्रव्यमन और द्रव्यवचन न भी हों, किन्तु तन तो उसके साथ जन्म-जन्मान्तर तक लगा ही रहता है। शुभाशुभ योगों के आधार पर पुण्यानव-पापानव - तन से प्रवृत्ति करते समय ही मन से या तो वह शुभभाव से संलग्न होगा, या फिर अशुभ भावों से युक्त होगा। अगर शुभभावों से युक्त होगा तो पुण्यासव (शुभकर्मों के आगमन) को आमंत्रित कर लेगा और यदि अशुभभावों से युक्त होगा तो पापासव (अशुभकों के आगमन) को आमंत्रित कर लेगा। अर्थात्-मानसिक, वाचिक या कायिक कोई भी प्रवृत्ति करते समय जीव यदि शुभभावों से युक्त होता है तो पुण्यकर्म के आम्रव का बीज बोता है और अशुभंभावों से युक्त होता है तो पापकर्म के आसव का बीज बोता है। पुण्य-पापानव का लक्षण और विश्लेषण
इसीलिए तत्त्वार्थ सूत्र में स्पष्ट कहा गया है"शुभः पुण्यस्य। अशुभः पापस्य।" (अ. ६, सूत्र ३-४) 'शुभयोग पुण्य का आस्रव है, और अशुभयोग पाप का आसव है।'
‘सर्वार्थसिद्धि' में शुभ-अशुभयोग की परिभाषा इस प्रकार है-'शुभ परिणामों (भावों) से निष्पन्न योग शुभ हैं और अशुभ परिणामों से निष्पन्न योग अशुभ।'
.. इसी दृष्टि से 'प्रवचनसार' में पुण्य और पाप का लक्षण निर्धारित किया है-'पर के प्रति शुभ-परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है।'..
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