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६४0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६).
इसके विपरीत जहाँ अप्रशस्त राग होता है, वहाँ घृणा, विद्वेष, ईर्ष्या, असूया, तुच्छ स्वार्थवृत्ति, अतिलोभ, अहंकार (जाति आदि अष्टमद) आदि अशुभवृत्तिप्रवृत्तियों के रूप में पाप या अमंगलकारी अशुभ कर्म का सृजन होता है। ___ संक्षेप में, यों कहा जा सकता है कि जिस प्रवृत्ति के पीछे शुभ आशय, शुभ हेतु, शुभ मंगलकारक परार्थ-परोपकारी वृत्ति, शुभ हेतु, प्रशस्तराग (प्रेम) तथा नीति-न्याय की वृत्ति होती है, वह कर्म पुण्य (शुभ) है और जिस प्रवृत्ति के पीछे धृणा, द्वेष, तुच्छ स्वार्थ, आर्तरौद्रध्यान, परपीड़न, अतिलोभ, अनीति, अन्याय, अत्याचार, हिंसा आदि की वृत्ति होती है, वह कर्म पाप (अशुभ) है।' कर्मों की शुभाशुभता के मापदण्ड पृथक्-पृथक् : क्यों और कैसे?
यद्यपि संसार के समस्त आस्तिक दर्शनों, धर्मों, पंथों, सम्प्रदायों एवं मजहबों ने अच्छे और बुरे कर्मों को माना है। भारतीय धर्मों और दर्शनों में जहाँ इन दोनों के लिए पुण्य और पाप शब्दों का प्रयोग हुआ है, वहाँ पाश्चात्य दर्शनों में शुभकर्मों के लिए मेरिट (Merit) और अशुभकमों के लिए डि-मेरिट (Demerit) अथवा गुड डीड (Good deed) और बेड डीड (Bad deed) शब्दों का प्रयोग हुआ है। यह बात दूसरी हैं कि प्रत्येक देश की ऐतिहासिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं, धर्म-धारणाओं, भौगोलिक परिस्थितियों, खान-पान एवं रहन-सहन की विभिन्नताओं तथा सभ्यता के विभिन्न स्तरों के कारण इन सबके शुभ और अशुभ कर्म के मापदण्ड पृथक्-पृथक् हो गए हैं। . कतिपय पाश्चात्य दर्शनों में क्रिया की शुभाशुभता की मान्यता ,
इस सन्दर्भ में हम डॉ. के. एल. शर्मा के लेख-“पाश्चात्य दर्शन में क्रियासिद्धान्त" द्वारा यह भी प्रमाणित करना चाहते हैं कि पाश्चात्य दार्शनिक जगत् में कुछ तत्त्वमीमांसक, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री एवं विधिशास्त्री ऐसे भी हुए हैं, जिनकी रुचि भारतीय आस्तिक दर्शनों के द्वारा मीमांसित कर्म के शुभाशुभ प्रत्यय की तरह क्रिया के शुभाशुभ प्रत्ययं में है।
मानवक्रिया का स्वरूप बताते हुए उन्होंने कहा कि-"हमारी क्रियाएँ प्रकृति में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों (Changes) से भिन्न हैं, क्योंकि मानव स्वयं गति करने वाला (Self mover) है, तथा वह स्वयं अपनी गतियों (क्रियाओं) को प्रारम्भ (Initiate) करता है, निर्देशित (Directed) एवं नियंत्रित (Controlled) करता १. (क) जैनकर्मसिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन)
(ख) जैनदृष्टिए कर्म (डॉ. मोतीचंद गि. कापड़िया)। २. 'कर्मविज्ञान प्रथम भाग (उपाचार्य देवेन्द्र मुनि) की प्रस्तावना पृ. ८
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