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योग - आम्नव: स्वरूप, प्रकार और कार्य ६२३
चतुर्विध मनोयोग के समान चतुर्विध वचनयोग भी
धवला में कहा गया है-चार प्रकार के मन से उत्पन्न हुए चार प्रकार के वचन भी क्रमशः उन्हीं संज्ञाओं को प्राप्त होते हैं, ऐसी प्रतीति भी होती है। गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में कहा गया है–सत्यादि पदार्थ से सम्बन्धित जो मन तथा वचन की प्रवृत्ति होती है, वह सत्यादि विशेषण से विशिष्ट चार प्रकार के मनोयोग व वचनयोग है।" वचनयोग के दो भेद : शुभ और अशुभ : स्वरूप और लक्षण
मनोयोग के समान वचनयोग के भी शुभवचनयोग और अशुभवचनयोग ये दो भेद किए गए हैं। उनका लक्षण राजवार्तिक में इस प्रकार किया गया है-असत्य भाषण, कठोरवचन, छेद-भेदकारी वचन, निश्चयकारी, हिंसाकारक सावद्य (पापयुक्त) आदि वचन प्रयोग अशुभ वचनयोग है और सत्य, हित, मित, असंदिग्ध, मृदु, असावद्य वचन बोलना शुभवचन योग है।
निमित्त की अपेक्षा से भी शुभ-अशुभ वचनयोग का लक्षण कार्तिकेयानुप्रेक्षा में दिया गया है - भोजनविकथा, स्त्रीविकथा, राजविकथा तथा (देशविकथा अथवा ) चोर कथा आदि अशुभ (पापवर्द्धक) कथाओं का करना अशुभ वचनयोग है और जन्ममरणादिरूप संसार परिभ्रमण का उच्छेद करने वाली कथाओं का करना या वैसे वचनप्रयोग करना शुभवचनयोग है।
अमनस्क विकलेन्द्रिय जीवों में अनुभयवचनयोग पाया जाता है : क्यों, कैसे ?
पहले यह कहा गया था कि वचन की उत्पत्ति पहले मन से होती है । इस दृष्टि से मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाले वचन को भी अनुभयवचन कहा गया। प्रश्न होता है, - ऐसी स्थिति में अमनस्क (द्रव्यमन रहित ) द्वीन्द्रय आदि जीवों के अनुभय वचन कैसे हो सकते हैं?
इसका समाधान धवला में इस प्रकार किया गया है कि यह एकान्त नहीं है कि सारे ही वंचन मन से ही उत्पन्न हों। यदि सम्पूर्ण वचनों की उत्पत्ति मन से मानी जाएगी तो मन से रहित केवलज्ञानियों के वचनों का अभाव प्राप्त हो जाएगा।
(ग) दसविहे सच्चा मोसे पण्णत्ते तं जहा
उप्पण्णमीसिए, विगतमीसए, उप्पण्णविगतमीसए, जीवमीसए, अजीवमीसए, जीव- अजीवमीसए, अणतमीसए, परित्तमीसए, अद्धामीसए अद्धद्धामीसए ॥
- स्थानांग स्थान १०/९१
(घ) पंचसंग्रह (प्रा.) १ / ९१-९२
१. (क) धवला १/१, १, ५२/२८६
(ख) गोम्मटसार जीवकाण्ड (जी. प्र.) २१७ / ४७५/५
२. (क) कार्तिकयानुप्रेक्षा ५३, ५५
(ख) राजवार्तिक ६/३, १, २
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