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६२६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) .. गया है-वात, पित्त और कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जीव प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है, वह 'काययोग' कहलाता है।' काययोग के सम्बन्ध में कुछ सैद्धान्तिक समाधान
काययोग शरीर नामकर्मोदय जनित नहीं होता, क्योंकि पुद्गलविपाकी (कर्म) प्रकृतियों के जीव (आत्म-) परिस्पन्दन का कारण होने में सैद्धान्तिक विरोध है। इसी प्रकार एक गति से दूसरी गति में जाते (चलते) समय (विग्रह गति में) आत्मप्रदेशों में संकोच-विकोच का नियम भी कर्मसिद्धान्त के विरुद्ध है, क्योंकि जब जीव जन्मान्तर के लिए या मोक्ष के लिए गति करता है, यानी अन्तराल गति के समय व सिद्ध होने के प्रथम समय में जब-जब जीव यहाँ से (मध्यलोक से) लोक के अग्रभाग को जाता है, तब स्थूल शरीर न होने से उसके प्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता। विग्रहगति में सिर्फ कार्मण काययोग ही होता है। वह भी सांसारिक जीवों के ही, १४वें गुणस्थान वाले : अयोगी केवली के नहीं। काययोग के सात प्रकार
षट्खण्डागम में काययोग सात प्रकार का बताया गया है- (१) औदारिक काययोग, (२) औदारिक-मिश्र काययोग, (३) वैक्रिय काययोग, (४) वैक्रिय-मिश्र काय योग, (५) आहारक काययोग, (६) आहारक-मिश्र काययोग और (७) कार्मण काययोग। शुभ-अशुभ काययोग : स्वरूप
शुभ, अशुभ परिणामों (भावों) की दृष्टि से काययोग के दो भेद होते हैंशुभकाययोग और अशुभकाययोग।
'राजवार्तिक' में व्यापक दृष्टि से शुभाशुभ काययोग के लक्षण इस प्रकार किये गए हैं-हिंसा, चोरी तथा मैथुन प्रयोगादि अनन्त विकल्परूप काययोग अशुभ है, जबकि अहिंसा, अचौर्य और ब्रह्मचर्यादि अनन्त विकल्प रूप काययोग शुभ है।
१. (क) सर्वार्थसिद्धि ६/१/६१९
(ख) धवला १/१,१,६५/३०८ (ग) धवला ७/२,१,३३/७६
(घ) वही, १0/४,२४/१७५ २. (क) धवला ५/१,७,४८/२२६
(ख) वही, ७/२,१,३३/७७ ३. षट्खण्डागम १/१,१/५६/२८९
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