________________
६२८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६)
विक्रिया और वैक्रिय शरीर
सर्वार्थसिद्धि, पंचसंग्रह (सं.) आदि के अनुसार अणिमा, महिमा आदि अष्टगुणरूप ऐश्वर्य के सम्बन्ध से एक-अनेक, छोटे-बड़े आदि अनेक प्रकार के रूपों का निर्माण करना (क्रियाएँ करना) विक्रिया कहलाती है। इस विक्रियारूप प्रयोजन को सिद्ध करने वाले शरीर को वैक्रिय (वैगूर्विक या वैक्रियिक) शरीर कहते हैं। अथवा तत्त्वार्थ श्रुतसागरी वृत्ति के अनुसार-जो शरीर सूक्ष्म से सूक्ष्म कार्य के करने में समर्थ पुद्गल से रचा जाता है, तथा जिसका प्रयोजन विविध (उक्त) क्रियाओं का करना है, वह वैक्रिय शरीर कहलाता है। उसके आश्रय से आत्म प्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है उससे होमे वाला योग वैक्रियिक काययोग कहलाता है।'
औदारिकमिश्रकाययोग के समान ही वैक्रियमिश्रकाययोग समझना। .
इसी प्रकार धवला के अनुसार-सूक्ष्मपदार्थों को आत्मसात् करने वाले आहारक काय से जो योग (परिस्पन्द या प्रयत्न) होता है, उसे आहारक काययोग कहते हैं। तथा आहारक शरीर और कार्मण शरीर के स्कन्धों से उत्पन्न हुए वीर्य के द्वारा जो योग होता है, उसे आहारकमिश्र काययोग कहते हैं।
धवला, प्रज्ञापनासूत्र आदि के अनुसार-जो सब शरीरों की उत्पत्ति का बीजभूत-कारण रूप शरीर है, उसे कार्मण शरीर कहते हैं। अथवा कर्म के विकारभूत या कारणरूप शरीर का नाम कार्मण शरीर है। उस कार्मण शरीर के साथ वर्तमान जो संयोग है, अर्थात-आत्मा की कर्माकर्षण शक्ति से संगत प्रदेश परिस्पन्दरूप जो योग है, उसे कार्मण काययोग कहते हैं। कायक्लेश काययोग-कर्मानव नहीं, वह कर्मक्षय का हेतु है।
प्रश्न होता है-कायक्लेश नामक बाह्य तप में भी कायिक प्रवृत्ति होती है, और तपस्या को निर्जरा (कर्मक्षय) का कारण माना गया है, परन्तु कायिक क्रिया होने से क्य उसे शुभ-आम्नव माना जाएगा?
(ग) शतक (म. हेम वृत्ति) २-३/५
(घ) धवला पु. १/पृ. २९० १. (क) सर्वार्थसिद्धि २/३६,
(ख) पंचसंग्रह (सं.) १/१७३-१७४ ।। २. धवला पु. १, पृ. २९२, २९३ ३. (क) धवला पु. १४ पृ. ३२९
(ख) प्रज्ञापना मलयवृत्ति २० प/२६७ सू./पृ. ४०९ (ग) गोम्मटसार (जी. जी. प्र.)७०३ (घ) धवला पु. १ पृ. २९९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org