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६०४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
इस विषय में अध्यात्मकमल - मार्त्तण्ड में दोनों का अनेकान्तदृष्टि से समन्वय करते हुए कहा गया है - यह सत्य है कि समयसारकथित प्रमाद को छोड़कर मिथ्यात्व आदि चार या गोम्मटसार, स्थानांग आदि में निरूपित मिथ्यात्वादि पाँच कारण आम्नव और बन्ध में समान हैं। क्योंकि जैसे अग्नि में दाहकत्व ( जलाने की) और पाचकत्वं ( पकाने की) दोनों शक्तियों का सद्भाव पाया जाता है, वैसे ही मिथ्यात्व आदि में आम्नवत्व और बन्धत्व, इन दोनों शक्तियों का सद्भाव है।' विशेषता इतनी है कि मिथ्यात्व आदि प्रथम समय में आम्रव के कारण होते हैं, और द्वितीय क्षण में बन्ध के।
आशय यह है कि दोनों में पूर्वक्षणवर्तित्व और उत्तरक्षणवर्त्तित्व का अपेक्षा है, किन्तु देशनाओं में भिन्नता नहीं है। अर्थात् दोनों के ही मिथ्यात्वादि हेतु समान हैं, किन्तु प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धों का आगमन होता है, वह आम्लव है और कर्मस्कन्धों के आगमन के पश्चात् द्वितीय क्षण में वे कर्मस्कन्ध जीव (आत्म) प्रदेशों में (श्लिष्ट होकर) अवस्थित हो जाते हैं यह बन्ध है। यही आनव और बन्ध में अन्तर है।
निष्कर्ष यह है कि आनव के द्वारा कर्मों का आगमन होता है और बन्ध के द्वारा उनका श्लेष होकर फलभोगपर्यन्त आत्म-प्रदेशों में अवस्थान हो जाता है।
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(क) “पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा - मिच्छत्तं अविरइ पमाया कसाया जोगा य।" - समवायांग, सम. ५
(ख) मिच्छत्तं अविरमणं कसाय-जोगा य आसवा होंति । पण बारस पणुबीसं पण्णारसा होंति तब्भेया ॥ (ग) “मिथ्यादर्शनाऽविरति प्रमाद - कषाय- योगा बन्धहेतवः (घ) “सामण्ण-पच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छतं अविरमणं कसाय जोगा य बोधव्या ॥" (ङ) "जीव - कर्मविलद्धो हि जीवबद्धं हि कर्म तत् ॥" (च) आत्म कर्मयोरन्योन्यानुप्रवेशात्मको बन्धः । (छ) चत्त्वारः प्रत्ययास्ते ननु कथमिति भावास्रवो ।
- गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) ८६ ।" - तत्त्वार्थसूत्र अ. ८ सू. १
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भावबन्धश्चैकत्वाद्वस्तुतस्तु बत मतिरिति चेतन, शक्तिद्वयात् स्यात् ॥ एकस्यापीह वन्हेर्द्रहन-पचन भावात्म शक्तिद्वयाद् वै । वह्निः स्याद् दाहकश्च, स्व-गुणगण बलात् पाचकश्चेति सिद्धेः ॥ मिथ्यात्वाद्यात्मभावाः प्रथमसमय एवानवे हेतवः स्युः । पश्चात् तत्कर्मवत्वं प्रतिसमसमये तौ भवेतां कथश्चित् ॥ नव्यानां कर्मणामागमनमिति तदात्वे हि नाम्नाऽस्रवः स्यात् । आयत्यां स्यात् स बन्धः स्थितमिति लयपर्यन्तमेषोऽनयोर्भित् ॥
- समयसार १०९
- पंचाध्यायी २/१०४ - सर्वार्थसिद्धि ८/११
- अध्यात्मकमलमार्त्तण्ड, परिच्छेद ४
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