________________
६१४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) वर्गणा को कार्मणवर्गणा कहा गया। इन कार्मण-वर्गणाओं के सुसंगठित समष्टिरूप को ही कार्मणशरीर (कर्मशरीर) नाम दिया गया है। ___ हमारा स्थूल शरीर तो प्रत्यक्ष दृश्यमान है, किन्तु कार्मण शरीर अदृश्य है। वह हाड़-मांस के इस स्थूल शरीर में पूर्णतः एकमेक होकर पूरे शरीर के आकार का है। यही कर्मपुद्गलरचित शरीर कर्म का प्रेरक है।
. जीवधारी के शरीर में आत्मा की विद्यमानता के कारण ही चेतना है। आत्मा न रहे तो शरीर निर्जीव (मुर्दा) हो जाता है। जब तक शरीर में आत्मा रहती है, तब तक यह हलन-चलन, कंम्पन-प्रकम्पन, विचार और अनुभव करता रहता है। जीव ज्ञानानन्दमय सचेतन आत्मा की विद्यमानता में ही कर्म करते हैं। जब तक आत्मा शरीर में वर्तमान है, तभी तक आस्रव, बन्ध आदि होते हैं। सचेतन आत्मा न हो तो शरीर कुछ भी सुख-दुःख आदि का अनुभव नहीं कर पाता। और न ही अपनी आत्मा से कुछ प्रेरणाएँ प्राप्त कर पाता है।' कार्मण शरीर ही व्यक्ति के मन, बुद्धि, मस्तिष्क को प्रेरित करता है
अतः ये कार्मण-वर्गणाएँ चैतन्ययुक्त शरीर में ही कार्मण शरीर के रूप में विद्यमान रहती हैं। ये सूक्ष्म बीजरूप में स्थित अदृश्य कार्मण-वर्गणाएँ ही कार्मण शरीर का निर्माण करती हैं। ये कार्मण-वर्गणाएँ भी पृथक-पृथक विभिन्न रासायनिक संगठनों की प्रतिनिधिस्वरूप विभिन्न गुण-प्रभाव से युक्त रहती हैं और इन्हीं बीजरूप कार्मणवर्गणाओं द्वारा निर्मित कार्मण शरीर से जीव के मन-वचन-काय (इन्द्रियों) द्वारा होने वाले सभी कार्य या क्रियाएँ परिचालित या प्रेरित होती हैं।
___ व्यक्ति जो भी सोचता-विचारता, बोलता या करता है, वह भी कार्मणशरीर के किसी न किसी आन्तरिक रासायनिक संगठन द्वारा ही प्रेरित या उत्पन्न होते हैं। कार्मण शरीर के अणु या कार्मण शरीर ही व्यक्ति के मन, बुद्धि या मस्तिष्क को परिचालित या नियंत्रित करता है। वही जीव के सभी क्रिया-कलापों को प्रेरित या संचालित करने में मूल स्रोत या आधार है।
कार्मणशरीर को बनाने वाली इन कार्मण-वर्गणाओं में परिवर्तन भी सतत होता रहता है। देहधारी की प्रत्येक क्रिया से कम्पन-प्रकम्पन होता रहता है। इनके परिणामस्वरूप अबाध्यरूप से प्रतिपल प्रतिक्षण पुद्गल-परमाणुओं और वर्गणाओं का अजन प्रवाह पारस्परिक क्रिया-प्रक्रिया द्वारा प्रभावित एवं परिवर्तित होता रहता है। आस्रव और योग की क्रिया-प्रक्रिया
शरीर में विद्यमान सभी वर्गणाएँ सतत परिवर्तनशील हैं। कुछ पुरानी वर्गणाएँ
१. जीवनरहस्य और कर्मरहस्य (आचार्य अनन्तप्रसाद जैन 'लोकपाल') पृ. १११-११२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org