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योग-आम्रव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ६१३
इसलिए उन्हें भी योग आस्रव नहीं कहा जा सकता। अतः योग का परिष्कृत स्वरूप बताते हुए कहा गया-"क्रिया (परिस्पन्दन या कम्पन) की उत्पत्ति में जीव का जो उपयोग होता है, वही वास्तव में योग है।''
कुछ स्वाभाविक कम्पन-प्रकम्पनों के अतिरिक्त जब भी व्यक्ति चलता-फिरता है, खाता-पीता, सोता-बैठता है; अथवा इन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं, अथवा मन विविध प्रकार के विचारों के ताने-बाने बुनता है, वचन द्वारा बोलने की विविध क्रियाएँ की जाती हैं, अथवा व्यक्ति जो कुछ भी देखता-सुनता है, सूंघता, स्पर्श करता या चखता है, उस से मन में अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ विविध विचार आते-जाते रहते हैं, इनसे भी कम्पन (योग) होते रहते हैं। ये कम्पन आत्मा के उपयोग से सम्बद्ध होने के कारण कर्मपुद्गलों के आसव के कारण होते हैं। कम्पनजनित कर्मों का उद्गमस्थान : कार्मण-वर्गणा
__ अब यह देखना है कि जीव के मन, वचन और शरीर से कम्पनजनित कर्मों का उद्गम स्थान या स्रोत क्या है ? ये कर्म कैसे प्रेरित होते हैं ?
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो हमारा समग्र शरीर रासायनिक द्रव्यों (chemicals) से बना है। अनन्त-अनन्त अणु-परमाणुओं के संयोग एवं स्कन्ध (संगठन) से इस शरीर का निर्माण हुआ है। शरीर को बनाने वाले ये सभी रासायनिक द्रव्य जैन परिभाषा में पुद्गल (अजीव द्रव्य या निर्जीव मेटर) कहलाते हैं। हमारे खान-पान, श्वासोच्छ्वास, मल-मूत्र, प्रस्वेद (पसीना) आदि से अनन्तानन्त पुद्गल हमारे शरीर में प्रवेश करते और निकलते रहते हैं। हर समय इनकी क्रिया-प्रक्रिया से सतत परिवर्तन (परिणमन) होता रहता है। कम्पन-प्रकम्पन (योग) इन क्रियाओं में तीव्रता लाकर इन परिवर्तनों में सुदृढ़ता, निश्चितता और स्थायित्व प्रदान करते हैं। वस्तुतः ये योगों के कम्पन-प्रकम्पन रासायनिक क्रियाओं के उत्तेजक या उद्दीपक का काम करते हैं। कार्मणवर्गणा ही कर्मशरीर की निर्मात्री ... वैज्ञानिक मानते हैं कि पदार्थ की सूक्ष्मतम इकाई का छोटा-से-छोटा कण अणु होता है, जिसमें पदार्थ के सभी गुण विद्यमान रहते हैं। ये अणु दो या दो से अधिक मूल धातुओं (Elements) के परमाणुओं(Atoms) के संघबद्ध (स्कन्ध) होने से बने हुए होते हैं। ये यौगिक (Compound) के रूप में होते हैं।
इन्हीं अणुओं को जैनकर्मविज्ञानमर्मज्ञों ने विभिन्न गुण, स्वभाव, प्रभाव, प्रकृति के अनुसार विभिन्न वर्गों में विभाजित होने से वर्गणा' कहा। कर्मों को प्रेरित करने वाली १. (क) वही, पृ. ११०
(ख) धवला १/१/१,६/३१६ (ग) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भा. ३, पृ. ३९२
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