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६१६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) अवश्य है, किन्तु चार गतियों में से एक गति से दूसरी गति में जाने में जीव प्रदेशों का परिस्पन्दन-संकोच-विकोच नहीं होता, परममुक्त सिद्धपरमात्मा जब जन्म-मरण-देह, इन्द्रिय आदि से रहित व कर्ममुक्त होकर जब मध्य लोक से लोक के अग्रभाग में जाते हैं, तब उनके आत्मप्रदेशों में योगाभाव के कारण संकोच विकोच रूप परिस्पन्द नहीं होता। इस कारण योग गति नहीं है, अपितु परिस्पन्दन क्रिया है। परिस्पन्द से रहित पूर्णमुक्त परमात्मा के आत्मप्रदेशों में योग की सम्भावना नहीं है। इसलिए वे अयोगी कहलाते हैं। यह नियम है कि आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द होता है तो योग (मन-वचन-काय की क्रिया) से ही होता है।' योग के शुभ-अशुभ रूप का आधार : शुभ-अशुभभाव
योग-आसव के शुभ और अशुभ दो रूप होते हैं। राजवार्तिक में एक प्रश्न उठाया गया है कि योग का शुभत्व और अशुभत्व क्या है ? वहाँ समाधान किया गया है-शुभ परिणामों (भावों) से निष्पन्न योग (मन-वचन-काय प्रवृत्ति) शुभ योग है और अशुभ . परिणामों से होने वाला योग अशुभ योग है।
वस्तुतः योग के शुभत्व और अशुभत्व का आधार भावों की शुभाशुभता है। शुभ उद्देश्य या आशय से प्रवृत्त योग शुभ और अशुभ उद्देश्य या आशय से प्रवृत्त होने वाला योग अशुभ है। किन्तु शुभ-अशुभ कर्मवन्ध का कारण होने से योग में शुभाशुभता नहीं मानी जाती। शुभाशुभ कर्मबन्ध पर योग की शुभाशुभता मानने से सभी योग अशुभ ही हो जाएंगे, कोई भी योग शुभ नहीं रह जाएगा। जबकि कर्मग्रन्थों में शुभ योग को भी आठवें आदि गुणस्थानों में अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्धन का कारण बताया गया है। त्रिविध योग अकेले सुख-दुःख के कारण नहीं
इसलिए सैद्धान्तिक दृष्टि से सोचा जाए तो त्रिविध योग अपने-आप में सुख-दुःख के हेतु नहीं हैं। जब ये त्रिविध योग मिथ्यात्वादि पूर्वोक्त चार आम्रवों के साथ मिलकर प्रवृत्त होते हैं, तब सुख-दुःख के हेतु बनते हैं। अकेले योग-आस्रव से कर्मों का ग्रहण आकर्षण अवश्य होता है, किन्तु उससे चैतन्य मूर्छित नहीं होता। इसीलिए अकेला योगआस्रव दुःख का हेतु नहीं बनता, जबकि मिथ्यात्वादि चार आम्नवों से चैतन्य मूर्छित हो जाता है, इस कारण वे दुःख के हेतु बनते हैं। १. वही, ७/२, १,३३/७७ २. कथं योगस्य शुभाशुभत्वम्?"शुभपरिणाम निर्वृत्तो योगः शुभः, अशुभ परिणाम निर्वृत्तश्चाशुभ
इति कथ्यते। न शुभाशुभ कर्मकारणत्वेन यद्यैवमुच्येत तर्हि शुभयोग एव न स्यात्। ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात्॥
-राजवार्तिक ६/३/२-३/५०७ ३. जैन योग पृ. ३४
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