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६०८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) के नहीं। अविरति पूर्णतया असंयत के तथा देशतः (आंशिकरूप से) देशविरति के ही पाई जाती है, संयत में नहीं। प्रमाद प्रमत्त संयत-पर्यन्त पाया जाता है, अप्रमत्त आदि गुणस्थानवी जीवों में नहीं। कषाय भी सकषायी जीवपर्यन्त (१०वें गुणस्थान तक) ही पाया जाता है, उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानवी जीवों में नहीं। जबकि योगरूप आम्नव तो सयोगी केवली (१३वें गुणस्थान) पर्यन्त पाया जाता है। ___ अतः योग-आम्नव का दायरा बहुत व्यापक है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय का दायरा सीमित है, भले ही इनका दायरा उत्तरोत्तर व्यापक है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय आस्रव के निमित्त से क्रमशः बढ़ते-बढ़ते दसवें गुंणस्थान तक कर्मपरमाणुओं का आगमन होता रहता है, किन्तु योग आम्नव से तो प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक कर्मपरमाणुओं का आगमन होता है। इसलिए योग की प्रधानता और व्यापकता के कारण योग को ही आसव कहा गया है।' योग ही आसव कहा जाता है, क्यों और कैसे?
जैसे जलाशय में जल को प्रवेश कराने वाले नाले आदि का मुख आसव अर्थात् प्रवाह का निमित्त होने से आसव' कहलाता है, वैसे ही आत्मा (आत्मप्रदेशों) में कर्मजल' को प्रवेश वाला योग कर्मों के प्रवाह (आमव) का निमित्त होने से योग को ही आस्रव कहा जाता है। योग के द्वारा ही आत्मा में कर्मवर्गणा का आस्रवण (कर्मरूप से संयोग) होता
मिथ्यात्व आदि चारों आनवों का योग में अन्तर्भाव ____एक कुँए में विद्युत्संचालित मोटर लगी हुई है। उसके साथ तीन पाइप फिट किये गए हैं। पाइपों के साथ भी अलग-अलग कार्य के लिए तीन मशीनें लगी हुई हैं। एक मशीन से पानी गर्म होकर नल के माध्यम से आता है; एक से पानी ठंडा होकर नल के द्वारा आता है तथा एक मशीन से पानी फिल्टर होकर नल के द्वारा आता है। तीनों मशीनों के कारण पानी चाहे अलग-अलग किस्म का आता हो, परन्तु सारा पानी आता है, कुँए से ही; और सब किस्म का पानी पाइपों एवं नलों के माध्यम से ही खिंचकर बाहर आता है।
___ इसी प्रकार आकाश प्रदेश में पुद्गल परमाणु रहे हुए हैं। मन-वचन-कायारूपी तीन पाइप (परनाले) ही कर्मजल को खींचते हैं। उनमें मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषायरूपी चार चित्तयंत्र लगे हुए हैं। उनमें से कोई चित्तयंत्र कर्मरूपी जल को उत्तेजित (गर्म) करता है, तो कोई कर्मजल को पुण्यरूप में परिणत करने हेतु शीतल मन्द करता है, तो कोई विवेक के छन्ने से छानकर कर्म को शुद्ध (अबन्धक) कर देता है। निष्कर्ष यह है कि मिथ्यात्व आदि चारों आसवों का संक्षेप में 'योग' में ही अन्तर्भाव हो जाता है। १. "शंका-योग एव आम्नवः सूत्रितो, न तु मिथ्यादर्शनादयोऽपीत्याह "।" ,
-तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक ६/२, पृ. ४४३
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