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६०० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
छोड़ने और अप्रमाद (सतर्कता, सावधानी और जागरूकता) को अपनाने, तथा कषायों को मन्द करने का अभ्यास करना चाहिए। प्रतिदिन अपने मन को स्थिर, शान्त एवं समत्व में स्थित रखने हेतु ध्यान का एवं आत्मा को इन शुभ भावों से स्वयं भावित करने ( ओटो - सजेशन देने) का अभ्यास करना आवश्यक है। तभी आप का मन, वचन और शरीर शान्त और स्थिर रह सकेगा।
एक ओर से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, इन चारों आस्रवों को क्षीण करने के लिए व्यक्ति स्वयं कटिबद्ध हो जाए और दूसरी ओर से योगों की चंचलता को कम करने का अभ्यास किया जाए तो आत्मभवन में कर्मों के आने के इन प्रवेश द्वारों को बन्द करना कठिन नहीं होगा। संवर की इस महत्वपूर्ण साधना में भले ही कई वर्ष लग जाएँ, इसमें उत्साहपूर्वक डटे रहें। तभी सिद्धि और सफलता के दर्शन होंगे। पाँच मुख्य मुख्य आनव-संवर द्वारों के बीस-बीस आम्रव-संवर उपद्वार
पूर्वोक्त विवेचन से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि आनंवों के पाँच मुख्य द्वार हैं, यानी सदर दरवाजे हैं,' जिन्हें खुले रख देने से या असावधानीपूर्वक खुले छोड़ देने से कर्मों का आगमन तेजी से होने लगता है।
कई दफा ऐसा भी होता है कि मुख्य द्वारों को पूरा न खोलना पड़े, इसके लिए दरवाजे में भी आने की दो छोटी-छोटी बारियाँ (द्वारिकाएँ) रख दी जाती हैं, जिनसे आसानी से प्रवेश किया जा सकता है। कर्मों के आगमन या प्रवेश के लिए भी कषाय और प्रमाद से युक्त जीव के आत्म-प्रदेशों में भी ऐसी बीस बारियाँ हैं, जिन्हें आम्रवों के उपद्वार कहा जा सकता है।
कर्मविज्ञान मर्मज्ञों ने उन्हें बीस आनवद्वार के नाम से अभिहित किया है। साथ ही उन्होंने इन द्वारों को बंद करने के बीस कपाट के रूप में बीस संवरद्वार भी बताये हैं। जागरूक और सतर्क साधक संवर के इन द्वारों के कपाटों को प्रायः बंद रखता है, परन्तु फिर भी जब विविध दैनिक प्रवृत्तियाँ करनी पड़ती हैं, तब उन कपाटों के पल्लों को खोलना पड़ता है, मगर खोलने पर भी वह सावधान रहता है और ज्यों ही कोई प्रवृत्ति करता है तो यत्नाचार पूर्वक करता है, सावधान रहता है कि कहीं से भी कोई आम्रव आकर घुस न जाए।
वैसे तो प्रश्नव्याकरण सूत्र में हिंसा, असत्य, चौर्य ( अदत्तादान), अब्रह्मचर्य (मैथुन) और परिग्रह, इन पाँचों को आनवद्वार की संज्ञा दी है और अहिंसा, सत्य, १. (क) पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा - मिच्छत्तं, अविरइ, पमाया, कसाया, जोगा य॥ - समवायांग समवाय ५ (ख) पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहा सम्मत्तं, विरई, अपमाया, अकसाया, अजोगा य । -वही, समवाय ५
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