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आस्रव की आग के उत्पादक और उत्तेजक
आनव शुद्ध आत्मा को आवृत, विकृत और सुषुप्त कर देता है
प्रत्येक आत्मा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति होती है; किन्तु आनव के कारण यह अनन्तशक्ति अभिव्यक्त नहीं हो पाती। जब तक आनवों का अस्तित्व रहता है, तब तक उस जीव के ज्ञान और दर्शन आवृत रहते हैं, उसका आत्मिक सुख (आनन्द) विकृत रहता है, और उसकी आत्मिक शक्ति सुप्त रहती है। सांसारिक आत्माओं में जो अशुद्धि या विकृति है अथवा शक्ति की सुषुप्ति है, वह स्वाभाविक नहीं है। वह समग्र अशुद्धि, विकृति या सुषुप्ति आम्नवजनित है। ...
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इसी के आधार पर समस्त जीव दो भागों में विभक्त होते हैं- बद्धजीव और मुक्तजीव । क्योंकि संसार के जन्ममरणादि के कारणभूत आनव ही जीवों के कर्मबद्ध होने का कारण है और आनव का प्रतिरोधी संवर कारण है- जीवों को कर्मों से मुक्त अथवा संसार से मुक्त करने का।
इसीलिए एक जैनाचार्य ने कहा है- "आनव संसार (भव भ्रमण ) का हेतु है और संवर संसार से मुक्ति (मोक्ष) का कारण है। संक्षेप में यही आर्हती (जैन) दृष्टि है, शेष सब इसी का विस्तार है।""
आनव का निरोध होने पर ही शुद्ध आत्मिक सुख की अनुभूति
अतः आम्नव-युक्त जीव बद्ध और आम्रव - मुक्त जीव मुक्त कहलाता है। जब तक आनव और उसके योगादि परिवार जनित कर्म रहते हैं, तब तक आत्मा को शुद्ध परमात्म-स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो पाता। आनव के निरोधक संवर की दीर्घकाल तक श्रद्धा-सत्कारपूर्वक निरन्तर साधना करने पर ही आम्रव की शक्ति क्षीण होती है, कर्मों के आगमनद्वार अवरुद्ध और बंद हो सकते हैं, आत्मा के शुद्ध निर्मल स्वरूप की अनुभूति हो सकती है, और तभी आत्मा के ज्ञान- दर्शनादि गुण निर्मल हो सकते हैं।
१. आम्रवो भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमार्हती दृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम्॥
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- एक जैनाचार्य
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