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कर्म आने के पाँच आस्रव द्वार ५९५ मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति सभी कार्य उलटे करता है
निष्कर्ष यह है कि मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति जिस किसी देव को, जिस किसी वेषधारी साधु को तथा जिस किसी भी शास्त्र को भय, लोभ, आशा और आसक्ति के वश सच्चा मानने को तैयार हो जाता है। उसका न तो अपना कोई सिद्धान्त होता है, न ही धर्मनीति के अनुरूप व्यवहार। जरा-से पद, प्रतिष्ठा रा धन के प्रलोभन से वह सभी प्रकार के अनर्थ करने को तैयार हो जाता है।
वह जाति, कुल, बल, रूप, लाभ, तप, श्रुत (शास्त्रज्ञान), ऐश्वर्य (सत्ता या अधिकार), एवं ऋद्धि (वैभव) के मद (अहंकार) से मत्त रहता है। वह प्रबल अहंकारवश दूसरों को तुच्छ समझकर उनका तिरस्कार करता है। वह धर्म की क्रियाओं या अहिंसा आदि या दानादि अंगों का आचरण भी करता है तो लौकिक लाभ, यशकीर्ति या प्रशंसा आदि की दृष्टि से करता है। वह देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता एवं लोकमूढ़ता
का शिकार बना रहता है। उसके विचार और कार्य शरीराश्रित व्यवहारों में उलझे रहते हैं। उसे न तो स्व-पर का विवेक होता है, न ही पदार्थों या सत्य तत्त्वों पर विश्वास । वह आत्मस्वरूप को भूल कर शरीरादि परपदार्थों में अहंत्व-ममत्व बुद्धि करता है। जो कल्याण का मार्ग है, उसमें उसकी श्रद्धा नहीं होती, वह भ्रान्त बना रहकर अकल्याण मार्ग को भी अपना लेता है। उसमें असत्य का हठाग्रह रहता है, पूर्वाग्रहवश वह अपनी मानी हुई परम्परा या मान्यता को ही सत्य और दूसरों की कल्याणकारी परम्परा या मान्यता को असत्य ठहराता है।' मिथ्यात्व-आप्नव के कारण :मति-भ्रान्ति, आकांक्षा में वृद्धि - मिथ्यात्व अवस्था में क्रोध, मान, माया और लोभ प्रबलतम होते हैं; इन्द्रियविषयों में अत्यधिक आसक्ति रहती है। वह पदार्थ-प्राप्ति की पिपासा और पिपासाशान्ति के आध्यात्मिक मार्ग को भी जानता है, फिर भी मिथ्यात्ववश वह उसी मार्ग को. अपनाता है, जिससे पिपासा एवं व्याकुलता अधिकाधिक बढ़ती है। उसकी मिथ्यादृष्टि ही उसकी बुद्धि को विपरीत, तथा मति को भ्रान्त करके उसे सत्य को विपरीत रूप में ग्रहणं करने के लिए बाध्य करती है। जब तक यह मिथ्यात्व-आस्रव नहीं छूटता या इसे रोका नहीं जाता, तब तक कर्म का चक्र टूट नहीं सकता। ___ यही कारण है कि जब तक मिथ्यात्व का अस्तित्व रहता है, तब तक आकांक्षा, अतृप्ति, पदार्थ-प्राप्ति की पिपासा, सांसारिक परपदार्थों की भोग-लालसा धनादि पदार्थों की तीव्र मूर्छा बनी रहती है। इसलिए अविरति आस्रव को उत्तेजित करने वाला, उसे हवा देने वाला मिथ्यात्व या मिथ्यादृष्टि आसव है। १. जैन दर्शन (डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य) पृ. २२७। २. जैन योग पृ. ३२
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