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आम्रव की आग के उत्पादक और उत्तेजक ५८३ होता है, दूसरे इनसे राग-द्वेष एवं कषायों की वृद्धि होती है, तीसरे निरर्थक कर्मबन्ध होता है। अतः इन विकथाओं में पड़ना अपनी आत्म-शक्तियों को व्यर्थ बर्बाद करना है। इसीलिए इन्हें प्रमाद का पंचम अंग कहा गया है कि इनमें पड़ने पर मानव अपने आत्म-स्वरूप को, अपनी आत्म-साधना को तथा आत्म-शक्तियों के सदुपयोग को भूल जाता है। प्रमाद से हानि, अप्रमाद से लाभ
अतः प्रमाद भी आसव की आग को प्रज्वलित करने और बढ़ाने वाला है। प्रमाद ऐसी आग है, अथवा आग का उत्पादक, संवर्द्धक है, जो छठे गुणस्थान तक व्यक्ति में सतत रहता है। प्रमाद के कारण रत्नत्रय की-मोक्षमार्ग की सम्यक् आराधना तथा कर्मक्षय करने की साधना के लिए साधु धर्म में दीक्षित साधक भी इन्हें भूलकर आराधक के बदले विराधक बन जाता है, कभी-कभी तो सम्यक् श्रद्धा से भी विचलित या भ्रष्ट होकर नीचे गुणस्थान की भूमिका में आ जाता है। प्रमाद की आग को बुझाने की दृष्टि से ही भगवान् ने साधकों को प्रत्येक चर्या के साथ “जयं चरे, जयं चिढे" यानी यतनापूर्वक चलने-बैठने आदि का निर्देश दिया है। कषाय : आनवाग्नि का सबसे प्रबल सहायक एवं उत्पादक
इसके पश्चात् सबसे तीव्र आग कषाय की है। कषाय स्वयं ही आग है, और आम्नव की आग को सबसे अधिक बढ़ाने, फैलाने और भड़काने वाला है। कषाय की आग दसवें गुणस्थान तक तो रहती ही है। ग्यारहवें गुणस्थान में मोहजन्य कषाय उपशान्त होकर विद्यमान रहती है। कहना चाहिए कि कषाय की आग का अस्तित्व दसवें गुणस्थान तक है। इतनी भयंकर दौड़ है इसकी। इसकी लपटें साधक के तन, मन और वचन सबको संतप्त, व्याकुल एवं अशान्त कर देती हैं। ... आसव की आग को तीव्रतम करने वाली, सबसे अधिक फैलाने वाली कषाय की चिनगारी है। इसका ताप शीघ्र नहीं मिटता। महान् एवं उच्च साधकों एवं आचार्य आदि पदधारियों को, जिन्होंने घर-बार छोड़कर अकिंचनता धारण की है, उन्हें भी कषाय नहीं छोड़ता। उनमें भी दूसरे सम्प्रदाय, पंथ या मत के साधकों के उत्कर्ष, प्रसिद्धि या प्रतिष्ठा को देख-सुनकर ईर्ष्या, द्वेष तथा निन्दा आदि की तथा अपने सम्प्रदाय के अनुयायियों की वृद्धि अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा, प्रतिष्ठा की लोभवृत्ति जाग्रत हो जाती है और तो
और जिनका क्रोध उपशान्त हो गया है, अहंकार वृत्ति भी शान्त है, माया भी नहीं रही, उनमें भी अपनी प्रसिद्धि, पद, प्रतिष्ठा तथा यश की कामना तथा शिष्यवृद्धि आदि का लोभ कषाय सूक्ष्म रूप से अंगड़ाई लेता रहता है। दसवें गुणस्थान तक संज्वलन लोभ का अस्तित्व रहता है।
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