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५९२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) अन्तर्मुखी वृत्ति वाला व्यक्ति गीता की भाषा में स्थितप्रज्ञ __ऐसी अन्तर्मुखी वृत्ति वाला निर्द्वन्द्व, शान्त, निश्चल एवं स्थिर हो जाता है। गीता में स्थितप्रज्ञ का लक्षण भी यही है, जब व्यक्ति मनोगत सभी कामनाओं-आकांक्षाओं का त्याग कर देता है और अपने आप सहजभाव से अपनी आत्मा में सन्तुष्ट-आत्मतृप्त होकर बैठ जाता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। दुःख प्राप्त होने पर जो अनुद्विग्न
और सुखों के पाने में निःस्पृह रहता है, तथा जिसके राग, भय और क्रोध (द्वेष) नष्ट हो गए हैं, वह स्थिरबुद्धि कहलाता है। जो सर्वत्र आसक्तिरहित है तथा अभीष्ट वस्तु को पाकर हर्षित नहीं होता और न ही अनिष्ट वस्तु पाकर मन में द्वेष करता है, उसी की बुद्धि स्थिर होती है। जो अपनी इन्द्रियों को विषयों से समेट कर अन्तर्मुखी कर देता है, उसी की बुद्धि स्थिर है।'' आत्म-भावों में स्थित साधक की निश्चलता और निःस्पृहता की झाँकी
आचारांग सूत्र में भी स्थितात्मा (गीता के स्थितप्रज्ञ) की योग्यता का दिग्दर्शन कराते हुए कहा गया है-“इस प्रकार वह स्थितात्मा (आत्मभाव में स्थित) संयम पालन में उद्यत, अस्नेह (अनासक्त), अविचल (परीषहों-उपसर्गों आदि से अकम्पित), चल (विहारचर्यादि करने वाला) तथा अपने अध्यवसाय को संयम से बाहर न ले जाने वाला साधक अप्रतिबद्ध होकर विचरण करे।" ___इसमें कर्मानवों से सावधान साधक की निःस्पृहता एवं निश्चलता की झांकी दी गई है।
इस सम्बन्ध में गजसुकुमालमुनि का जीवन वृत्तान्त द्रष्टव्य है। स्वयं में अन्तर्लीन होने से ही चंचलता कम होगी
निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति जब स्वयं अपने आत्मभवन में प्रवेश करके अपनी आत्मगुण-समृद्धि को टटोलने लगता है, तब आंकाक्षाएँ-अपेक्षाएँ स्वतः कम होती जाती हैं, और तब योगों की चंचलता-चपलता अपने आप कम होती जाती है।
१. (क) कर्मवाद पृ. ४८
(ख) यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। ___आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते॥ -गीता अ. ३ श्लो. १७
(ग) वही, अ. २, श्लोक ५५ से ५८ तक २. एवं से उहिए ठियप्पा, अणिहे अचले चले अबहिलेस्से परिव्यए।" :
-आचारांग श्रु.१ अ. ६ उ. ५ . ३. देखें-अन्तकृद्दशा सूत्र वर्ग ३, अ.८
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