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कर्मों का आनव : स्वरूप और भेद ५७१ (६) मृषा क्रिया-झूठ बोलने की क्रिया, अथवा दम्भ आदि से प्रेरित होकर की जाने वाली क्रिया।
(७) अदत्तादान क्रिया-चोरी, डकैती, ठगी, लूटमार, छीनाझपटी, गिरहकटी आदि क्रिया।
(८) अध्यात्म क्रिया-दम्भ, दिखावा, ठगने या वंचना करने की दृष्टि की गई सामायिक आदि अध्यात्म क्रिया, अथवा अकारण ही मन में होने वाली क्रोध, आदि मानसिक क्रिया।
(९) मानक्रिया-जाति आदि का मद या गर्व, अहंकार आदि करना। (१०) माया-क्रिया-कपट करना, धोखेबाजी करना। (११) लोभक्रिया-लोभ, लालच या लोलुपता करना। (१२) मित्र क्रिया-प्रियजनों, मित्रों, हितैषीजनों को कठोर दण्ड देना।
(१३) ईर्यापथिकी क्रिया-अप्रमत्त, कषायवृत्तिरहित, संयमी साधक की आहार विहार, गमनागमन आदि चर्यारूप यत्लाचारयुक्त क्रिया।' . ___ इनमें से तेरहवीं क्रिया के सिवाय शेष १२ क्रियाएँ साम्परायिक आम्नव की आधार हैं। वैसे देखा जाए तो मूलभूत आम्नव त्रिविध योग है। यह समग्र क्रिया-व्यापार भी स्वतः प्रभूत नहीं है। उसके भी प्रेरक सूत्र हैं, मिथ्यात्वादि; जिन्हें आम्नवद्वार कहा जाता है। इन्हें ही तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'बन्धहेतु' कहा है। इनके सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन हम आगे करेंगे। साम्परायिक आस्रव के दो भेद : शुभानव और अशुभास्रव ____साम्परायिक आम्नव के मुख्य दो भेद हैं-शुभानव और अशुभाम्नव। ये त्रिविध योग प्रसूत हैं। इनके अनेक भेद-प्रभेद हैं, जिनका विवेचन हम आगे करेंगे। .. निष्कर्ष यह है कि आनवों का स्वरूप, रहस्य, इनके मुख्य द्वार, इनके मूल आधार. आदि सबको हृदयंगम करके नये कर्मों के आने के द्वार पर प्रहरी बनकर ही व्यक्ति इनका निराकरण, उपेक्षा और निरोध आसानी से कर सकेगा।
३. (क) सूत्रकृतांग २/२/१
(ख). जैन कर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ..६१
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