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कर्मों का आम्रव : स्वरूप और भेद ५६९
(१४) सामन्तोपनिपातिकी क्रिया-इसके दो अर्थ परिलक्षित होते हैं-(१) स्त्री, पुरुष और पशुओं के आने-जाने के स्थान पर मल-मूत्र आदि का त्यागना; (२) स्वयं के भौतिक पदार्थों की सम्पदा, अथवा चेतन प्राणिज सम्पदा (पलियाँ, दास-दासी, पशु-पक्षी आदि) को देखकर लोगों के द्वारा की गई प्रशंसा या निन्दा से हर्ष-विषाद होने की क्रिया।
(१५) स्वहस्तिकी क्रिया-अपने हाथ से जीवों को त्रास देने या कष्ट देने की क्रिया। अथवा अपने हाथ से निर्जीव डंडा, लट्ठी आदि से प्रहार करने की क्रिया। दूसरे की क्रिया को स्वयं कर लेना भी स्वहस्तिकी क्रिया का अर्थ है।
(१६) नैसृष्टिकी क्रिया-किसी सचेतन प्राणी को पकड़कर फैंक देने की क्रिया, अथवा निर्जीव पदार्थों (बन्दूक बाण आदि) से निशाना साधकर चलाने और जीव को मारने की क्रिया।
(१७) आज्ञापनिका क्रिया-दूसरे को आज्ञा देकर कराई जाने वाली सावध क्रिया, या पापकर्म। इसे कहीं-कहीं 'आज्ञा व्यापादिकी' भी कहा है, अर्थ किया गया हैशास्त्रीय आज्ञा के विपरीत चलने या प्ररूपणा करने की क्रिया।
(१८) वैदारणिकी क्रिया-विदारण करने-चीरने फाड़ने से निष्पन्न क्रिया, अथवा संघ या समाज में फूट-विघटन पैदा करने की क्रिया; अथवा दूसरे के द्वारा किये गए पापकार्य को प्रकट करना।
(१९) अनाभोग-प्रत्ययाक्रिया-इसके दो अर्थ हैं-(१) बिना देखे-भाले, या ' प्रमार्जन किये, शरीर, वस्त्र, पात्र आदि को रखना, गिराना, (२) अविवेकपूर्वक जैसे-तैसे जीवनव्यवहार का सम्पादन करना या अविवेक अयतनापूर्वक सभी प्रवृत्तियाँ या क्रियाएँ चेष्टाएँ करना।
(२०) अनवकांक्ष प्रत्यया क्रिया-स्वहित-परहित का ध्यान न रखकर क्रिया करना, अथवा गुरुजनों या बड़ों की आज्ञा की अपेक्षा किये बिना, इच्छा जाने बिना ही मनमानी प्रवृत्ति करते रहना। - (२१) प्रेय-प्रत्यया क्रिया-राग, मोह, आसक्ति (मूढ़ प्रेम) के वशीभूत होकर क्रिया करना या रागादि से निष्पन्न मानसिक क्रिया। . (२२) द्वेष प्रत्यया क्रिया-द्वेष वृत्ति से प्रेरित होकर कोई भी प्रवृत्ति करना।
(२३) प्रयोग या प्रायोगिकी क्रिया-मन, वचन, काया से अनुचित-अशुभ प्रवृत्ति करना या इन तीनों की शक्तियों का दुष्प्रयोग करना। १. (२४) समुदान क्रिया सामुदायिक क्रिया-समूहबद्ध होकर सामूहिकरूप से अशुभ या अनुचित प्रवृत्ति करना। जैसे-सामूहिक नृत्य करना या वेश्यानृत्य करवाना, अथवा सामूहिक रूप से कोई षड्यंत्र करना, जालसाजी या ठगी करना।
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