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५६८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६)
प्रमत्त जीव की क्रिया, (२) सम्यग्दृष्टि प्रमत्त जीव की क्रिया एवं (३) सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त . जीव की क्रिया।
(२) अधिकरणिका क्रिया-घातक शस्त्र, अस्त्र, मूसल, ऊखल आदि अधिकरणों के द्वारा सम्पन्न की जाने वाली क्रिया या प्रवृत्ति।
(३) प्राद्वेषिकी क्रिया-दूसरों के प्रति द्वेष, घृणा, मात्सर्य, असूया, ईर्ष्या आदि से युक्त होकर की जाने वाली क्रिया।
(४) पारितापनिकी क्रिया-स्वयं को या दूसरों को व्यर्थ ही संतप्त, पीड़ित, या दुःखित करना।
(५) प्राणातिपातकी क्रिया-दस प्राणों में से किसी भी प्राण का घात करना, हिंसा करना। यह क्रिया स्व और पर दोनों से सम्बन्धित है। राग-द्वेष, तथा कषायावेश में आकर अपने ही प्राणों का घात करना, या आत्महत्या करना, अथवा स्व-स्वभाव का घात करना स्व-प्राणातिपातकी है, और दूसरे प्राणियों के प्राणों का घात करना या प्राणों से वियुक्त करना पर-प्राणातिपातकी है।
(६) आरम्भिकी क्रिया-गृहकार्य या आजीविकादि कार्य में होने वाले आरम्भ (जीवों की हिंसा) से निष्पन्न होने वाली क्रिया।
(७) पारिग्रहिकी क्रिया-जड़ पदार्थों तथा सचेतन प्राणियों का मूर्छा-ममतापूर्वक संग्रह या परिग्रहण करना। अथवा परिगृहीत पदार्थों का नाश या वियोग न हो, इस दृष्टि से की जाने वाली क्रिया।
(८) मायाप्रत्यया क्रिया-छल, कपट, ठगी, धोखा, वंचना या कुटिलता से निष्पन्न होने वाली क्रिया।
(९) अप्रत्याख्यान क्रिया-असंयम या अविरति (नियम, व्रतादि ग्रहण न करने) की दशा में होने वाली प्रवृत्ति। अथवा पापप्रवृत्ति से निवृत्त न होना। .
(१०) मिथ्यादर्शन क्रिया-मिथ्यात्व से युक्त होकर या मिथ्यादृष्टि से प्रेरित विविध क्रियाएँ करना। अथवा मिथ्यादर्शन के अनुसार प्रवृत्ति करने-कराने में निरत मनुष्य की प्रशंसा या अनुमोदना करके मिथ्यात्व में दृढ़ करना।
(११) दृष्टिजा क्रिया-देखने की क्रिया या दृष्टि से होने वाली प्रवृत्ति से जनित राग-द्वेषादि क्रिया।
(१२) पृष्टिज-स्पृष्टिजा क्रिया-स्पर्श सम्बन्धी क्रिया या स्पर्श जनित रागद्वेषादि मानसिक क्रिया।
(१३) प्रातीत्यिकी क्रिया-सजीव या निर्जीव पदार्थों के बाह्य संयोग, आश्रय या निमित्त से निष्पन्न रागादि मानसिक क्रिया तथा तज्जनित क्रिया।
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