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५६६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६)
का ग्राह्य विषय रूप है, नासिका का ग्राह्य विषय गन्ध है, जिह्वा का ग्राह्यविषय रस है, कर्ण का ग्राह्यविषय शब्द है, और काया (स्पर्शेन्द्रिय) का ग्राह्यविषय स्पर्श है; इन पाँचों विषयों के प्रति राग का कारण मनोज्ञ रूपादि है, और द्वेष का कारण है अमनोज्ञ रूपादि। इन दोनों के प्रति राग-द्वेष करना ही कर्मासव है, जो इन दोनों (मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों) के प्रति अरागद्विष्ट (सम) रहता है; वही वीतराग हो सकता है।" ___उसके फिर अशुभकर्मानव तो होता ही नहीं है। शुभकर्मानव भी पहले क्षण में आता है, दूसरे क्षण में बद्ध स्पृष्ट होकर निर्जरित (आंशिक रूप से क्षय) हो जाता है। इसके विपरीत विषयों के प्रति राग द्वेष से जिसका चित्त प्रदुष्ट रहता है; वह विविध पापकर्मों का आनव, बन्ध और संचय (सत्तावस्थित) करता रहता है। ये ही बद्ध, संचित कर्म भविष्य में विपाक के समय दुःख रूप हो जाते हैं।'
यहाँ तथा गीता में कर्मों के आम्नव के मूल कारण राग-द्वेष से बचने के लिए (लोकदृष्टि में) प्रिय को पाकर हर्षित न हो, अप्रिय को पाकर उद्विग्न न हो, दोनों ही अवस्था में सम रहे।
मानलो कभी नेत्र आदि का किसी प्रिय या अप्रिय वस्तु या विषय से स्पर्श हो जाए तो तुरन्त नेत्र आदि को वहाँ से हटा ले, रूपादि के प्रति उपेक्षा या तटस्थता रखे। तटस्थमध्यस्थ (सम) रहने वाले को ही आचारांग में निर्जरापेक्षी कहा है।
जिस प्रकार कछुआ खतरा देखते ही अपने अंगों को समेट लेता है. उसी प्रकार राग, द्वेष, मोह और आसक्ति का खतरा देखते ही जो अपनी इन्द्रियों को उन-उन विषयों से सहसा सर्वथा खींच लेता है, सिकोड़ कर अपनी आत्मा में लीन कर देता है, उसी की प्रज्ञा प्रतिष्ठित (स्थिर) है।"
आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि जिस व्यक्ति को शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श भलीभाँति ज्ञात हो जाते हैं, और जो उनमें राग-द्वेष का त्याग कर देता है, वही आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान् धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। वस्तुतः इन्द्रिय विषयों के
१. (क) जे इंदियाणं विसया मणुना, न तेसु भावं निसिरे कयावि।
न याऽमणुनेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥-उत्तराध्ययन ३२/२१ (ख) वही, गा. २३, ३५, ४८, ६१,७४ २. न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य, नोद्विजेत् प्राप्य चाऽप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मवित् ब्रह्मणि स्थितः ॥
-गीता ५/२० ३. मज्झत्यो निज्जरापेही समाहिमणुपालए। अंतो बहिं विउसिज्ज अज्झत्यं सुद्धमेसए
-आचारांग १/८/८/२० ४. यदा संहरते चाऽयं कूर्मोऽगानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
-गीता २/५८ ५. आचारांग १/३/१ सूत्र ३५७
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