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नहीं रह सकता था। उपोसथ और प्रवारणा को रोक नहीं सकता था और न वह किसी पर दोष लगा सकता था और न किसी को दण्ड भी दे सकता था।' भिक्षणी के लिए परिवास दण्ड का विधान नहीं था। ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी के अशोक के अभिलेखों में संघभेद करने पर भिक्षु और भिक्षुणी दोनों को आनावासस्थान में प्रेषित कर देने का वर्णन है। बुद्धघोष के मन्तव्यानुसार चेतियघर (श्मशान-स्थल), बोधिधर (बोधिगृह), सम्मज्जनीअट्टक (स्नानगृह). दारू-प्रट्टक (लकड़ी बनाने का स्थान), पानीयमाल (छज्जा), वच्छकूटी (शौचालय) तथा द्वारकोट्टक (द्वारकोष्ठक) ये अनावासस्थान था।
डॉ. अरुणप्रतापसिंह की यह कल्पना है कि बौद्धसंघ में पहले भिक्षुणियों के लिए भी परिवास दण्ड का विधान था । यह सम्राट अशोक के अभिलेखों से स्पष्ट होता है। पर बाद में संघ ने देखा होगा अनावास स्थान में रहने से भिक्षणियों की शीलरक्षा की समस्या उपस्थित होगी। इसलिए उस विधान में परिवर्तन किया गया हो।
थेरवादीनिकाय में भिक्षुणियों के लिए १६६ पाचित्तिय (प्रायश्चित्त) नियम बताये गये हैं, तो महासांधिकनिकाय में पाचित्तिय धर्म की संख्या ९४९ है । वहाँ पर उसे शुद्ध पाचत्तिक धर्म कहा गया है। दोनों में ही पाचित्तय नियम प्रायः समान हैं। इन नियमों में कुछ नियम दुष्कृत्य से सम्बन्धित हैं । अन्तर्मानस में बुरी भावना पाने पर या बुरे कार्य करने पर प्रायश्चित्त दिया जाता था। कुछ नियम बुद्ध धर्म और संघ या अन्य किसी भी व्यक्ति को कटुवचन कहने पर प्रायश्चित्त देने के थे । कुछ नियम मैथुन सम्बन्धी अपराध के लिए प्रायश्चित्त देने के थे । हस्तकर्म करना, गुप्तेन्द्रिय को तेल घृत आदि लगाकर संचालित करना, कृत्रिम मैथुन आदि से सम्बन्धित अपराध करने पर प्रायश्चित्त दिये जाते थे। कुछ नियम हिंसा सम्बन्धी अपराधों के प्रायश्चित्त देने के थे। कुछ नियम किसी को मारना, पीटना तथा ताड़ना, तर्जना, आत्मघात करना और शस्त्र आदि से सम्बन्धित थे । कुछ नियम चोरी सम्बन्धी अपराध के लिये प्रायश्चित्त देने के थे । कुछ नियम संघ संबंधित अपराधों के प्रायश्चित्त देने के थे । संघ से निष्कासित व्यक्ति के साथ सम्बन्ध करना । संघीय आचारसंहिता का पालन न करता । कितने ही नियम आहार सम्बन्धी अपराध से सम्बन्धित हैं। रात्रिभोजन करना । स्वस्थ भिक्षणी का घत, तेल, मधु, मांस, मछली, मक्खन लहसुन का सेवन करना । कच्चे अनाज को भूनकर खाना । गहस्थ या परिव्राजक को अपने हाथ से खिलाना। विकाल में भोजन करना, स्वादिष्ट भोजन के लिए गृहस्थों के यहाँ भटकना। कुछ नियम वस्त्रों से सम्बन्धित है। वस्त्रों को नाप से अधिक बड़ा या छोटा रखना। सूत कातना आदि का निषेध है और कुछ नियम स्वाध्याय से सम्बन्धित हैं।
मन्त्र आदि विद्याओं को सीखने का निषेध किया गया है। उसे धर्म के सार को ही ग्रहण करना है अन्य निरर्थक बातें नहीं।
सारांश यह है कि चाहे जैन परम्परा रही हो, चाहे बौद्ध परम्परा रही हो, चाहे वैदिक परम्परा रही हो, सभी ने मैथुन, चोरी और हिंसा को गम्भीरतम अपराध माना है। जैन और बौद्ध दोनों परम्परामों ने संघको अत्यधिक महत्त्व
१. चुल्लवग्ग पाट्टि पृ. ६७-८१ २. ए चुं खो भिखु वा भिखनि वा संघ भाखति से प्रोदातानि दुसानि
संनं धापथिया अनावाससि आवाससिये। 3. Corpus Inscriptionum Indicarum Vol. I. P. 161. ४. समन्तपासादिका भाग तृतीय पृ. १२४४
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