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[निशीथसूत्र
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'उस्सट्ठ'-काकादिभ्यः-प्रक्षेपणाय स्थापितं पिंडं । उस्सट्टे ---उज्झियधम्मिए ।
उपलब्ध अनेक प्रतियों में "किविणपिंड' पाठ अधिक है । भाष्य, चूणि में इसकी व्याख्या नहीं की गई है तथा इस शब्द की यहां आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती है । उसका आशय दानपिंड एवं वनीपकपिण्ड में गर्भित हो जाता है। आठवें उद्देशक का सारांश
छठे, सातवें उद्देशक में मैथुन के संकल्प से की गई प्रवृत्तियों के प्रायश्चित्त कहे हैं। आठवें उद्देशक में मैथुनसेवन के संकल्प की निमित्त रूप स्त्री संबंधी प्रायश्चित्त का कथन है, बाद में राजपिंड से संबंधित प्रायश्चित्त कहे गये हैं। सूत्र १ से ९ तक-धर्मशाला आदि ४ में, उद्यानादि ४ में, अट्टालिका आदि ६ में, दगमार्ग आदि ४ में,
शून्यगृह आदि ६ में, तृणगृह आदि ६ में, यानशाला आदि ४ में, दुकान आदि ४ में, गोशाला आदि ४ में अकेला साधु अकेली स्त्री के साथ रहे, आहारादि करे, स्वाध्याय
करे, स्थंडिलभूमि जाये या विकारोत्पादक वार्तालाप आदि करे । १०. रात्रि के समय स्त्रीपरिषद् में या स्त्री युक्त पुरुषपरिषद् में अपरिमित कथा करे ।
११. साध्वी के साथ विहार आदि करे या अति संपर्क रखे। १२-१३. उपाश्रय में स्त्री को रात्रि में रहने देवे, मना नहीं करे तथा उसके साथ बाहर आना
जाना करे। १४. मूर्द्धाभिषिक्त राजा के अनेक प्रकार के महोत्सवों में आहार ग्रहण करे । १५-१६. उत्तरशाला अथवा उत्तरगृह में तथा अश्वशाला प्रादि में आहार ग्रहण करे ।
१७. राजा के दूध-दही आदि के संग्रहस्थानों से आहार ग्रहण करे। १८. राजा के उत्सृष्टपिंड आदि-दान निमित्त स्थापित आहार को ग्रहण करे।
इत्यादि प्रवृत्तियों का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। उपसंहार
इस उद्देशक के १४ सूत्रों के विषय का कथन निम्न आगमों में है, यथा
स्त्रीसंसर्ग का निषेध दशवै. अ. ८, गा. ५२-५८, उत्तरा. अ. १, गा. २६, अ. ३३, गा. १३-१६ आदि अनेक पागम स्थलों में है । उसी का कुछ स्पष्टीकरण व स्थलनिर्देश युक्त वर्णन सूत्र १ से ९ में है।
१. दशवैकालिक अ. ३ व आचारांगसूत्र श्रु. २, अ. १, उ. ३ में राजपिंड, २. दशवे. अ. ५, गा. ४७ से ५२ में दानपिण्ड,
३. आचारांगसूत्र श्रु. २, अ. १, उ. २ में संखडी में बने भोजन का ग्रहण करना निषिद्ध है। इनका यहां सूत्र १४-१८ तक विस्तार पूर्वक प्रायश्चित्त कथन है । इस तरह १ से ९ व १४ से १८ कुल १४ सूत्रों में अन्य प्रागम निर्दिष्ट विषयों का प्रायश्चित्त कथन है।
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