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निशीथसूत्र
मूल में स्वीकार नहीं किया गया तीसरा व छट्ठा सूत्र इस प्रकार हैजे भिक्खू अय-पायाणि वा जाव चम्म-पायाणि वा परिभुजइ, परिभुजंतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू अय-बंधणाणि वा जाव चम्म-बंधणाणि वा परिभुजइ, परिभुजंतं वा साइज्जइ ॥६॥
सूत्रकथित लोहे आदि के पात्र किस-किस कीमत के ग्रहण करने से कितना-कितना प्रायश्चित्त प्राता है तथा किन-किन दोषों की सम्भावना रहती है इत्यादि जानकारी के लिये भाष्य देखें।
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पात्र हेतु अर्धयोजन की मर्यादा भंग करने का प्रायश्चित्त
५. जे भिक्खू परं अद्धंजोयणमेराओ पायवडियाए गच्छइ, गच्छंतं वा साइज्जइ ।
६. जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ सपच्चवायंसि पायं अभिहडं आहटु देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ।
५. जो भिक्षु आधे योजन से आगे पात्र के लिये जाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है।
६. जो भिक्ष बाधा वाले मार्ग के कारण आधे योजन की मर्यादा के बाहर से सामने लाकर दिया जाने वाला पात्र ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-आचारांगसूत्र श्रु. २, अ. ६, उ. १ में आधे योजन से आगे पात्र के लिये जाने का निषेध है । अपने ठहरने के स्थान से गवेषणा के लिये जाने की यह क्षेत्र-मर्यादा है कि दो कोस तक जा सकता है। उससे अधिक दूर जाने में एवं पुनः आने में समय की अधिकता तथा अनवस्था आदि दोषों को सम्भावना रहती है । अत: पांचवें सूत्र में इसका प्रायश्चित्त कहा है।
आचारांगसूत्र श्रु. २, अ. ६, उ. १ में सामने लाया हुआ पात्र ग्रहण करने का निषेध है, जिसका प्रायश्चित्त कथन निशीथसूत्र उद्देशक १४ में है । यहाँ छठे सूत्र में विशेष स्थिति का प्रायश्चित्त है।
जिस दिशा में पात्र उपलब्ध हो वहाँ जाने का मार्ग सिंह, सर्प या उन्मत्त हाथी आदि से अवरुद्ध हो गया हो या जल से अवरुद्ध हो गया हो और पात्र की यदि अत्यन्त आवश्यकता हो और प्राधा योजन (दो कोस) क्षेत्र में से सामने लाकर दिया जा रहा हो तो ग्रहण करने पर इस सूत्र के अनुसार गुरुचौमासी प्रायश्चित्त नहीं आता है, किन्तु प्राधा योजन के आगे से सामने लाया गया पात्र ग्रहण करने पर यह प्रायश्चित्त आता है।
सूत्र में "सपच्चवायंसि" शब्द है। जिसका "किसी प्रकार की बाधाजनक स्थिति' ऐसा अर्थ होता है । अतः बीमारी आदि कारणों से भी सामने लाया गया पात्र ग्रहण किया जा सकता है किन्तु अर्द्ध योजन की मर्यादा भंग करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है।
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