________________
३९०]
[ निशीथसूत्र
१४०-१५४. जो भिक्षु खेत यावत् भवनगृहों के शब्द सुनने के संकल्प से जाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है इत्यादि १२वें उद्देशक के समान यहाँ भी सभी सूत्र, 'शब्दश्रवण के आलापक' से जानना यावत् जो भिक्षु अनेक बैलगाड़ियों के यावत् अन्य अनेक प्रकार के महाप्राश्रव वाले स्थानों में शब्द सुनने के संकल्प से जाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है ।
१५५. जो भिक्षु -
१. इहलौकिक शब्दों में, २. पारलौकिक शब्दों में, ३. दृष्ट शब्दों में, ४. अदृष्ट शब्दों में, ५. पूर्व सुने हुए शब्दों में, ६. प्रश्रुत शब्दों में, ७. ज्ञात शब्दों में, ८. अज्ञात शब्दों में प्रासक्त, अनुरक्त, गृद्ध और अत्यधिक गृद्ध होता है या ग्रासक्त, अनुरक्त, गृद्ध और अत्यधिक गृद्ध होने वाले का अनुमोदन करता है ।
इन १५५ सूत्रों में कहे गये स्थानों का सेवन करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है । विवेचन - इन १६ सूत्रों का संपूर्ण विवेचन १२वें उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए, चूर्णिकार ने भी यही सूचन किया है ।
सत्रहवें उद्देशक का सारांश
सूत्र १-२
कुतूहल ' स प्राणी को बांधना, खोलना ।
३-१४ कुतूहल से मालाएं, कड़े, आभूषण और वस्त्रादि बनाना, रखना और पहनना । १५-६८ साध्वी, साधु का शरीरपरिकर्म गृहस्थ द्वारा करवावे |
६९-१२२ साधु, साध्वी का शरीरपरिकर्म गृहस्थ द्वारा करवावे । १२३-१२४ सदृश निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को स्थान नहीं देना ।
१२५ - १२७
१२८ - १३१
१३२
१३३
१३४
१३५
अधिक ऊँचे-नीचे स्थान में से या बड़े कोठे में से आहार लेना अथवा लेप आदि से बंद बर्तन खुलवाकर आहार लेना ।
सचित्त पृथ्वी आदि पर रखा हुआ आहार लेना । पंखे आदि से ठंडा करके दिया गया आहार लेना ।
तत्काल बना हुआ अचित्त शीतल जल (धोवण ) लेना ।
अपने आचार्यपद योग्य शारीरिक लक्षण कहना ।
Jain Education International
गाना, बजाना, हँसना, नृत्य करना नाटक करना, हाथी, घोड़े, सिंह आदि जानवरों के जैसे आवाज करना ।
१३६-१३९ वितत, तत, धन और सिर वाद्यों की ध्वनि सुनने जाना ।
१४०-१५५ अन्य अनेक स्थलों के शब्द सुनने के लिए जाना । शब्दों में प्रासक्ति रखना इत्यादि प्रवृत्तियां करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।
इस उद्देशक के २९ सूत्रों के विषयों का कथन निम्नांकित श्रागमों में है, यथा१२५-१२७ मालोपहृत, कोठे में रखा और मट्टियोपलिप्त आहार लेने का निषेध |
- आचा. श्रु. २, अ. १, उ. ७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org