Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 517
________________ उन्नीसवां उद्देशक] [४१७ १५. श्मशान-श्मशान के निकट चारों तरफ अस्वाध्याय होता है । १६. सूर्यग्रहण-अपूर्ण हो तो १२ प्रहर और पूर्ण हो तो १६ प्रहर तक अस्वाध्याय होता है, सूर्यग्रहण के प्रारम्भ से अस्वाध्याय का प्रारम्भ समझना चाहिए । अथवा जिस दिन हो उस पूरे दिन-रात तक अस्वाध्याय होता है, दूसरे दिन अस्वाध्याय नहीं रहता है । १७. चन्द्रग्रहण-अपूर्ण हो तो आठ प्रहर और पूर्ण हो तो १२ प्रहर तक अस्वाध्याय रहता है । यह ग्रहण के प्रारम्भ काल से समझना चाहिए । अथवा उस रात्रि में चन्द्रग्रहण के प्रारम्भ से अगले दिन जब तक चन्द्रोदय न हो तब तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । उसके बाद अस्वाध्याय नहीं रहता है। १८. पतन-राजा मन्त्री आदि प्रमुख व्यक्ति की मृत्यु होने पर उस नगरी में जब तक शोक रहे और नया राजा स्थापित न हो तब तक अस्वाध्याय समझना और उसके राज्य में भी एक अहोरात्र का अस्वाध्याय समझना चाहिए। १९. राज-व्युद्ग्रह-जहाँ राजाओं का युद्ध चल रहा हो उस स्थल के निकट या राजधानी में अस्वाध्याय रहता है । युद्ध के समाप्त होने के बाद एक अहोरात्र तक अस्वाध्याय काल रहता है। २०. औदारिक कलेवर-उपाश्रय में मृत मनुष्य का शरीर पड़ा हो तो १०० हाथ के भीतर अस्वाध्याय होता है। तिर्यंच का शरीर हो तो ६० हाथ तक अस्वाध्याय होता है । किन्तु परम्परा से यह मान्यता है कि औदारिक कलेवर जब तक रहे तब तक उस उपाश्रय की सीमा में अस्वाध्याय रहता है । मृत या भग्न अंडे का तीन प्रहर तक अस्वाध्याय रहता है। ये दस औदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय हैं। इन सभी (२० ही) अस्वाध्यायों का विवेचन प्रायः भाष्य के आधार से किया गया है अतः प्रमाण के लिए देखें--निशीथ भाष्य गा. ६०७८६१६२; व्यव. उ. ७ भाष्य गा. २७२-३८६; अभि. रा. कोष भाग १ पृ. ८२७ 'असज्झाइय' शब्द । इन ३२ प्रकार के अस्वाध्यायों में स्वाध्याय करने पर जिनाज्ञा का उल्लंघन होता है और कदाचित देव द्वारा उपद्रव भी हो सकता है। तथा ज्ञानाचार की शुद्ध पाराधना नहीं होती है अपितु अतिचार का सेवन होता है। धूमिका, महिका में स्वाध्याय आदि करने से अप्काय की विराधना भी होती है । औदारिक सम्बन्धी दस अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने पर लोक व्यवहार से विरुद्ध आचरण भी होता है तथा सूत्र का सम्मान भी नहीं रहता है । युद्ध समय और राज मृत्य-समय में स्वाध्याय करने पर राजा या राज कर्मचारियों को साधु के प्रति अप्रीति या द्वेष उत्पन्न हो सकता है । __ अस्वाध्याय में स्वाध्याय के निषेध करने का प्रमुख कारण यह है कि भग. श. ५, उ. ४ में देवों को अर्धमागधी भाषा कही है और यही भाषा आगम की भी है । अतः मिथ्यात्वी एवं कौतुहली देवों के द्वारा उपद्रव करने की सम्भावना बनी रहती है। अस्वाध्याय के इन स्थानों से यह भी ज्ञात होता है कि स्पष्ट घोष के साथ उच्चारण करते हुए प्रागमों को पुनरावृत्ति रूप स्वाध्याय करने की पद्धति होती है । इसी अपेक्षा से ये अस्वाध्याय कहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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