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बीसवां उद्देशक]
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उन्नीस उद्देशकों में मासिक, चौमासी और इनके गुरु या लघु यों चार प्रकार के प्रायश्चित्त का कथन है तथापि कुछ विशेष दोषों के प्रायश्चित्तों में पांच दिन, दस दिन की वृद्धि भी होती है। इसीलिए सूत्र १३-१४ में चार मास या चार मास साधिक, पांच मास या पांच मास साधिक ऐसा कथन है, किन्तु चौमासी प्रायश्चित्त स्थानों के समान पंचमासी या छमासी प्रायश्चित्त स्थानों का स्वतंत्र निर्देश प्रागमों में नहीं है । प्रस्तुत उद्देशक में भी उनका केवल संकेत मिलता है।
इन प्रायश्चित्त स्थानों में से किसी एक प्रायश्चित्त स्थान का एक बार या अनेक बार सेवन करके एक साथ आलोचना करने पर प्रायश्चित्त स्थान वही रहता है किन्तु तप की हीनाधिकता हो जाती है।
यदि प्रायश्चित्त स्थान अनेक हों तो उन सभी स्थानों के प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है और उन सभी प्रायश्चित्त स्थानों के अनुसार यथा योग्य तप प्रायश्चित्त दिया जाता है।
सरल मन से आलोचना करने पर प्रायश्चित्त स्थान के अनुरूप प्रायश्चित्त आता है और कोई कपट युक्त अालोचना करे तो कपट की जानकारी हो जाने पर उस प्रायश्चित्त स्थान से एक मास अधिक प्रायश्चित्त आता है अर्थात् कपट करने का एक गुरु मास का प्रायश्चित्त और संयुक्त कर दिया जाता है।
९ पूर्वी से लेकर १४ पूर्व तक के श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी ये आगमविहारी भिक्षु आलोचक के कपट को अपने ज्ञान से जान लेते हैं अतः इनके सन्मुख ही आलोचना एवं प्रायश्चित्त करना चाहिये। इनके अभाव में श्रुतव्यवहारी साधु तीन बार आलोचना सुनकर भाषा तथा भावों से कपट को जान सकते हैं क्योंकि वे भी अनुभवी गीतार्थ होते हैं।
यदि कपटयुक्त आलोचना करने वाले का कपट नहीं जाना जा सके तो उसकी शुद्धि नहीं होती है । इसलिए आगमों में आलोचना करने वाले की एवं सुनने वाले की योग्यता कही गई है तथा आलोचना संबंधी अन्य वर्णन भी है । यथा
१. ठाणांग अ. १० में आलोचना करने वाले को १० गुणयुक्त होना अनिवार्य कहा गया है । यथा
१. जातिसंपन्न, २. कुलसंपन्न, ३. विनयसंपन्न, ४. ज्ञानसंपन्न, ५. दर्शनसंपन्न, ६. चारित्रसंपन्न, ७. क्षमावान्, ८. दमनेन्द्रिय, ९. अमायी, १०. आलोचना करके पश्चाताप नहीं करने वाला।
२. ठाणांग अ. १० में आलोचना सुनने वाले के १० गुण इस प्रकार कहे हैं यथा
१. प्राचारवान्, २. समस्त दोषों को समझ सकने वाला, ३. पांच व्यवहारों के क्रम का ज्ञाता, ४. संकोच-निवारण में कुशल, ५. आलोचना कराने में समर्थ, ६. आलोचना को किसी के पास प्रकट न करने वाला, ७. योग्य प्रायश्चित्त दाता, ८. आलोचना न करने के या कपटपूर्वक आलोचना करने के अनिष्ट परिणाम बताने में समर्थ । ९. प्रियधर्मी, १०. दृढधर्मी।
उत्तरा. अ. ३६ गा. २६२ में आलोचना सुनने वाले के तीन गुण कहे हैं१. आगमों का विशेषज्ञ, २. समाधि उत्पन्न कर सकने वाला, ३. गुणग्राही ।
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