________________
बीसवाँ उद्देशक]
[४३७ दोष न छिपाये हों और उसके दोष-सेवन की जानकारी जनसाधारण को न हुई तो उसे दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त देना चाहिए।
२. यदि उसने बार-बार ब्रह्मचर्य आदि महाव्रत भंग किया हो, बार-बार माया-मषा भाषण किया हो, उसके बार-बार ब्रह्मचर्य आदि भंग की जानकारी जनसाधारण को हो गई हो तो उसे मूल अर्थात् नई दीक्षा देने का प्रायश्चित्त देना चाहिए।
उत्तराध्ययन सूत्र अ. २९ में दोषों की आलोचना निंदा एवं गर्दा का अत्यंत शुभ एवं श्रेष्ठ फल कहा है।
ठाणं० अ० १०, भगवती श० २५ उ० ७, उव० सूत्र० ३० और उत्तरा० अ० ३० में १० प्रकार के प्रायश्चित्त कहे हैं उनमें आलोचना करना प्रथम प्रायश्चित्त स्थान कहा गया है ।
प्रायश्चित्त-चारित्र के मूल गुणों में या उत्तर गुणों में की गई प्रतिसेवनाओं अर्थात् दोष सेवन का प्रायश्चित्त किया जाता है। निशीथसूत्र में तप-प्रायश्चित्त के चार मुख्य विभाग कहें हैं और भाष्य में उसी की विस्तार से व्याख्या करते हुए पाँच दिन के तप से लेकर छः मास तक तप तथा छेद मूल अनवस्थाप्य एवं पारांचिक प्रायश्चित्त तक का कथन किया है ।
प्रतिसेवना के भावों के अनुसार एक ही दोष-स्थान के प्रायश्चित्तों की वृद्धि या कमी की जाती है।
भगवती श० २५ उ० ७ एवं ठाणांग अ० १० में प्रतिसेवना दस प्रकार की कही है । यथा
१. दर्प से (प्राशक्ति एवं धृष्टता से), २. आलस्य से, ३. असावधानी से, ४. भूख प्यास आदि की आतुरता से, ५. संकट आने पर ६. क्षेत्र आदि की संकीर्णता से, ७. भूल से, ८. भय से, ९. रोष से या द्वेष से, १०. शिष्य आदि की परीक्षा के लिए।
प्रत्येक दोष-सेवन के पीछे इनमें से कोई भी एक या अनेक कारण होते हैं।
इन कारणों में से किसी कारण से लगे दोष की केवल पालोचना से ही शुद्धि हो सकती है तो किसी की आलोचना और प्रतिक्रमण से शुद्धि होती है और किसी की तप छेद आदि से शुद्धि होती है।
दोष-सेवन के बाद प्रात्मशुद्धि का इच्छुक आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है । जिस प्रकार वस्त्र में लगे मैल की शुद्धि धोने से हो जाती है उसी प्रकार आत्मा के (संयमादि में) लगे दोषों की शुद्धि प्रायश्चित से हो जाती है।
___उतरा० अ० २९ में कहा है कि प्रायश्चित्त करने से दोषों की विशुद्धि हो जाती है, चरित्र निरतिचार हो जाता है, तथा सम्यग् प्रायश्चित्त स्वीकार करने वाला मोक्षमार्ग एवं आचार का आराधक होता है।
दस प्रकार का प्रायश्चित्त
१. आलोचना के योग्य-क्षेत्रादि के कारण आपवादिक व्यवहार प्रवृत्ति प्रादि की केवल आलोचना से शुद्धि होती है ।
२. प्रतिक्रमण के योग्य-असावधानी से होने वाली अयतना की शुद्धि केवल प्रतिक्रमण से (मिच्छामि दुक्कड़ से) होती है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org