Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 539
________________ बीसवां उद्देशक] [४३९ परिहार तप एवं शुद्ध तप किन-किन को दिया जाता है यह वर्णन भाष्य गाथा-६५८६ से ९१ तक में है । वहाँ पर यह भी कहा है कि साध्वी को एवं अगीतार्थ, दुर्बल और अंतिम तीन संधयण वाले भिक्षु को शुद्ध तप प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। २० वर्ष की दीक्षा पर्यायवाले को, २९ वर्ष की उम्र से अधिक वय वाले को, उत्कृष्ट गीतार्थ अर्थात् ९ पूर्व के ज्ञानी को, प्रथम संहनन वाले को तथा अनेक अभिग्रह तप साधना के अभ्यासी को परिहार तप दिया जाता है । भाष्य गाथा. ६५९२ में परिहार तप देने की पूर्ण विधि का वर्णन किया गया है। सूत्र १ से ५ तक एक मासिक प्रायश्चित्त स्थान से लेकर पांच मासिक प्रायश्चित्त स्थान के एक बार सेवन का तथा सूत्र ६ से १० तक अनेक बार सेवन का सामान्य प्रायश्चित्त कहा गया है साथ ही कपटयुक्त आलोचना का एक गुरुमास प्रायश्चित्त विशेष देने का कहा गया है। सूत्र ११ से १४ में इन्हीं प्रायश्चित्त स्थानों में से अनेक स्थानों के सेवन से द्विसंयोगी आदि भंगयुक्त अनेक सूत्रों की सूचना की गई है, भाष्य चूणि में भंग-विस्तार से करोड़ों सूत्रों की गणना बताई गई है। सूत्र ५, १० तथा ११ से १४ तक के सूत्रों में "तेण परं-पलिउंचिय अपलिउंचिय ते चेव छम्मासा" यह वाक्य है । इसका आशय यह समझना चाहिए कि-इसके आगे कोई ६ मास या ७ मास के योग्य प्रायश्चित्त का पात्र हो-अथवा कपटसहित या कपटरहित आलोचना करने वाला हो तो भी यही छः मास का प्रायश्चित्त आता है, इससे अधिक नहीं आता है। सुबहुहि वि मासेहि, छण्हं मासाण परं ण दायव्वं ॥ ६५२४ ॥ चूणि-तवारिहेहि बहुहि मासेहि छम्मासा परं ण दिज्जइ, सव्वस्सेव एस णियमो, एत्थ कारणं जम्हा अम्हं वद्धमाण सामिणो एवं चेव परं पमाणं ठवितं । भावार्थ-वर्द्धमान महावीर स्वामी के शासन में इतने ही प्रायश्चित्त की मर्यादा निर्धारित है और सभी साधु-साध्वी के लिए यह नियम है । ___ अगीतार्थ, अतिपरिणामी, अपरिणामी साधु-साध्वी को ६ मास का तप ही दिया जाता है, छेद प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है। किन्तु दोष को पुनः पुनः सेवन करने पर या आकुट्टी बुद्धि प्रर्थात् मारने के संकल्प से पंचेन्द्रिय की हिंसा करने पर या दर्प से कुशील के सेवन करने पर इन्हें छेद प्रायश्चित्त दिया जा सकता है तथा छेद के प्रति उपेक्षावृत्ति रखने वालों को "मूल प्रायश्चित्त" दिया जाता है। अन्य अनेक छोटे बड़े दोषों के सेवन करने पर प्रथम बार में छेद या मूल प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है, किन्तु जिसे एक बार इस प्रकार की चेतावनी दे दी गई है कि "हे आर्य ! यदि बारंबार यह दोष सेवन किया तो छेद या मूल प्रायश्चित्त दिया जायेगा।" उसे ही छेद या मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। जिसे इस प्रकार की चेतावनी नहीं दी गई है उसे छेद या मूल प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता है । भाष्य में चेतावनी दिये गये साधु को 'विकोवित' एवं चेतावनी नहीं दिये गये साधु को "अविकोवित" कहा गया है । विकोवित को भी प्रथम बार लघु, दूसरी बार गुरु एवं तीसरी बार छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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