Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 544
________________ ४४४] [निशीथसूत्र इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। ___ जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित होकर वहन करते हुए भी पुनः किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिये। १८. जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक-इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की अनेक बार प्रतिसेवना करके ना करे तो उसे मायासहित आलोचना करने पर आसेवित प्रतिसेवना के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित करके उसकी योग्य वैयावृत्य करनी चाहिये। यदि वह परिहार तप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार को प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिये। १. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, २. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो, ३. पीछे से प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, ४. पीछे से प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो। १. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, २. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित पालोचना की हो, ३. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित मालोचना की हो, ४. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो। इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित होकर वहन करते हुए भी पुनः किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए। विवेचन-पूर्व सूत्रों में प्रायश्चित्त देने संबंधी वर्णन है और इन अागे के सूत्रों में प्रायश्चित्त वहन कराने संबंधी वर्णन है । इनमें चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आदि का कथन किया गया है फिर भी अन्त के कथन से आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए और मासिक आदि सभी असंयोगी-संयोगी विकल्पों वाले प्रायश्चित्तों के वहन करने की भी विधि इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए। यहाँ सर्वप्रथम प्रायश्चित्त वहन करने को 'स्थापन करना' कहा गया है और उस वहनकाल में दिए गये प्रायश्चित्त को 'प्रस्थापन करना' कहा गया है। प्रस्थापनाकाल में लगाये जाने वाले दोषों के प्रायश्चित्त को भी उसमें संयुक्त करने के लिए कहा गया है। इस प्रकार प्रायश्चित्त संयुक्त करने का कथन इन सूत्रों में है। प्रथम सूत्र में प्रायश्चित्त की स्थापना एक बार लगाये गये दोष के कपटरहित आलोचना की है और दूसरे सूत्र में कपटसहित आलोचना की है। आगे के दो सूत्रों में प्रायश्चित्त की स्थापना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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