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[निशीथसूत्र
३. ठाणांगं अ. १० में आलोचना के १० दोष इस प्रकार कहे हैं१. सेवा प्रादि से प्रसन्न करने के बाद उसके पास आलोचना करना। २. मेरे को प्रायश्चित्त कम देना इत्यादि अनुनय करके आलोचना करना। ३. दूसरों के द्वारा देखे गये दोषों की आलोचना करना, ४. बड़े-बड़े दोषों की आलोचना करना, ५. छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना,
अत्यंत अस्पष्ट बोलना, ७. अत्यन्त जोर से बोलना, ८. अनेकों के पास एक ही दोष की आलोचना करना । ९. अगीतार्थ के पास आलोचना करना, १०. अपने समान दोषों का सेवन करने वाले के पास आलोचना करना।
उपरोक्त स्थानों का योग्य विवेक रखने पर ही आलोचना शुद्ध होती है। यदि आलोचना सुनने वाला योग्य न मिले तो अनुक्रम से स्वगच्छ, अन्य गच्छ या श्रावक आदि के पास भी आलोचना की जा सकती है, अंत में अरिहंत-सिद्धों की साक्षी से भी आलोचना करने का विधान व्यव. उ. १ में किया गया है।
ठाणांग अ. ३ में कहा है कि ज्ञान-दर्शन-चारित्र की शुद्ध आराधना के लिये आलोचनाप्रायश्चित्त किया जाता है। दोषों की आलोचना एवं प्रायश्चित्त नहीं करने वाला इहलोक और परलोक दोनों ही बिगाड़ता है और वह विराधक होकर आत्मा को अधोगति का भागी बनाता है।
आलोचना नहीं करने के अनेक कारणों में मुख्य कारण अपमान एवं अपयश के होने का होता है किन्तु यह विचारों की अज्ञानदशा है । क्योंकि आलोचना करके शुद्ध होने वाला इस भव में और परभव में पूर्ण समाधि को प्राप्त करता है और आलोचना नहीं करने वाला इस भव में अंदर ही अंदर खिन्न होता है एवं उभयलोक में असमाधि को प्राप्त करता है और आलोचना न करके सशल्य मरण से दीर्घसंसारी होता है।
जो भिक्षु मूलगुणों में अथवा उत्तरगुणों में एक वार या अनेक वार दोष लगाकर उन्हें छिपावे, लगे हुए दोषों की न आलोचना करे और न प्रायश्चित्त ले तो गणनायक उसे लगे हुए दोषों के संबंध में पूछे।
यदि वह असत्य बोले, अपने आपको निर्दोष सिद्ध करे तो दोष सेवन करते हुए उसे देखने के लिए किसी को नियुक्त करे और प्रमाणपूर्वक उसके दोष सेवन का उसी के सामने सिद्ध करवाकर प्रायश्चित्त दें।
उन्नीस उद्देशकों में ऐसे मायावी को दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों का विधान नहीं है। इनमें केवल स्वेच्छा से आलोचना करने वालों को दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों का विधान है। उक्त मायावी भिक्षु लगे हुए दोषों को सरलता से स्वीकार न करे तो गच्छ से निकाल देना चाहिए ।
यदि वह लगे हए दोषों को सरलता से स्वीकार कर ले, गच्छ प्रमुख को उसकी सरलता पर विश्वास हो जावे तो उसे निम्न प्रायश्चित्त देकर गच्छ में रखा जा सकता है।
१. यदि उसने अनेक बार दोष सेवन न किए हों, अनेक बार मृषा भाषण करके उसने अपने
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