Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 527
________________ उन्नीसवां उद्देशक] [४२७ एवं भिक्षाचर अन्यतोथिक' ऐसा विशिष्ट अर्थ किया गया है अर्थात् उनके साथ गोचरी आदि में गमनागमन करने पर प्रायश्चित्त कहा है, उसी प्रकार प्रस्तुत सूत्रों में भी मिथ्यात्वभावित गृहस्थ एवं अन्यतीथिक लिंगधारी के साथ वाचना के आदान-प्रदान का प्रायश्चित्त समझना चाहिए । भाष्यकार ने बताया है कि उनके पास से वाचना ग्रहण करने पर इस प्रकार से निन्दा होती है कि-"इनके धर्म में शास्त्र-ज्ञान नहीं है इस कारण से दूसरों के पास ज्ञान लेने जाते हैं और उन्हें वाचना देने पर वे विवाद पैदा कर सकते हैं, अनुचित्त आक्षेप करके जिनधर्म के विरुद्ध प्रचार कर सकते हैं, कई पागम विषयों को विकृत करके प्रचार कर सकते हैं अथवा वे अपने मिथ्यात्व को और अधिक पुष्ट कर सकते हैं तथा उस वाचना लेन-देन के व्यवहार का कथन करके लोगों को मिथ्यात्वी बना सकते हैं। __ भाष्य कथित इन कारणों से भी यही स्पष्ट होता है कि यह निषेध सम्यग्दृष्टि या श्रमणोपासक के लिए नहीं है किन्तु मिथ्यादृष्टि के लिए है। नन्दोसूत्र एवं समवायांगसूत्र में श्रमणोपासकों के श्रुत अध्ययन करने का एवं सूत्रों के उपधान [तप] का कथन है यथा उवासगदसासु णं उवासगाणं नगराई जाव पोसहोववास पडिवज्जणयाओ सुय परिगहा, तवोवहाणा, पडिमाओ............ -सम. इसी प्रकार का पाठ नन्दीसूत्र में भी है तथा आगमों में श्रमणोपासक के लिए बहुश्रुत एवं जिनमत में कोविद आदि विशेषण भी पाए हैं । चार तीर्थ में और चार प्रकार के श्रमण संघ में उन्हें समाविष्ट किया गया है अतः यह प्रायश्चित्त श्रमणोपासक की अपेक्षा नहीं समझना चाहिए। __ मिथ्यादृष्टि यदि धर्म के सन्मुख होने योग्य हो तो उसे योग्य उपदेश अथवा आगम वर्णन बताने एवं समझाने में भी दोष नहीं समझना चाहिए किन्तु यह कार्य गीतार्थ एवं विचक्षण भिक्षु के योग्य है, अन्यथा परिचय सम्पर्क करना भी सम्यकत्व का अतिचार कहा गया है। श्रमण वर्ग में वाचनादाता के अभाव में अथवा कभी आवश्यक होने पर बहुश्रुत श्रमणोपासक से वाचना ग्रहण करना भी प्रायश्चित्त योग्य नहीं है, क्योंकि इसमें दोष का कोई कारण नहीं है तथा ठाणांग सूत्र के "चउविहे समणसंघे" इस पाठ में श्रमणोपासक का बहुत सम्माननीय स्थान कहा गया है। अतः प्रसंगानुकूल अर्थ करते हुए यहाँ मिथ्यात्व भावित गृहस्थ आदि के साथ वाचना के आदान-प्रदान का प्रायश्चित्त समझना चाहिए। पार्श्वस्थ के साथ वाचना के आदान-प्रदान का प्रायश्चित्त २६. जे भिक्खू पासत्थस्स वायणं देइ, देतं वा साइज्जइ । २७. जे भिक्खू पासत्थस्स वायणं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ । २८. जे भिक्खू ओसण्णस्स वायणं देइ, वेंतं वा साइज्जइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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