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[निशीथसूत्र हैं। किन्तु इनकी अनुप्रेक्षा में या भाषांतरित हुए आगम का स्वाध्याय करने में अस्वाध्याय नहीं होता है।
अस्वाध्याय के सम्बन्ध में विशेष विधान यह है कि आवश्यक सूत्र के पठन-पाठन में अस्वाध्याय नहीं होता है क्योंकि यह सदा उभयकाल संध्या समय में ही अवश्य करणीय होता है। अतः 'नमस्कार मन्त्र', "लोगस्स'' आदि आवश्यक सूत्र के पाठ भी सदा सर्वत्र पढ़े या बोले जा सकते हैं ।
किसी भी अस्वाध्याय की जानकारी होने के बाद शेष रहे हुए अध्ययन या उद्देशक को पूर्ण करने के लिए स्वाध्याय करने पर प्रायश्चित्त आता है।
तिर्यंच पंचेंद्रिय या मनुष्य के रक्त आदि की जल से शुद्धि करना हो तो स्वाध्याय स्थल से ६० हाथ या १०० हाथ दूर जाकर करनी चाहिए । त्रिन्द्रिय चतुरिंद्रिय के खून या कलेवर का अस्वाध्याय नहीं गिना जाता है।
औदारिक सम्बन्धी अशुचि पदार्थों के बीच में राजमार्ग हो तो अस्वाध्याय नहीं होता है। उपाश्रय में तथा बाहर ६० हाथ तक अच्छी तरह प्रतिलेखन करके स्वाध्याय करने पर भी कोई औदारिक अस्वाध्याय रह जाय तो सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है।
अतः भिक्षु दिन में सभी प्रकार के अस्वाध्यायों का प्रतिलेखन एवं विचार करके स्वाध्याय करे और रात्रि में स्वाध्यायकाल प्रतिलेखन करने योग्य अर्थात् जहां पर खड़े होने पर सभी दिशाएं एवं आकाश स्पष्ट दिखें ऐसी तीन भूमियों का सूर्यास्त पूर्व प्रतिलेखन करे । वर्षा आदि के कारण से कभी मकान में रहकर भी काल प्रतिलेखन किया जा सकता है।
बहुत बड़े श्रमण समूह में दो साधु आचार्य की आज्ञा लेकर काल प्रतिलेखन करते हैं, फिर सूचना देने पर सभी साधु स्वाध्याय करते हैं। बीच में अस्वाध्याय का कारण ज्ञात हो जाने पर उसका पूर्ण निर्णय करके स्वाध्याय बन्द कर दिया जाता है।
स्वाध्याय आभ्यन्तर तप एवं महान् निर्जरा का साधन होते हुए भी अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने पर जिनाज्ञा का उल्लंघन होता है, मर्यादा भंग आदि से कर्मबन्ध होता है, कभी अपयश भी होता है इसलिए संयम विराधना की एवं प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। -निशीथचूणि प्रस्तुत सूत्र ।
अतः स्वाध्याय-प्रिय भिक्षु को अस्वाध्यायों के सम्बन्ध में भी सदा सावधानी रखनी चाहिए।
स्वकीय अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने का प्रायश्चित्त
१५. जे भिक्खू अप्पणो असज्झाइए सज्झायं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ।
१५. जो भिक्षु अपनी शारीरिक अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है या स्वाध्याय करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुचौमासो प्रायश्चित्त पाता है ।)
विवेचन-स्वयं का अस्वाध्याय दो प्रकार का होता है-१. व्रण सम्बन्धी २. ऋतुधर्म सम्बन्धी । इसमें भिक्षु के एक प्रकार का एवं भिक्षुणी के दोनों प्रकार का अस्वाध्याय होता है।
शरीर में फोड़े-फुन्सी, भगंदर, मसा आदि से जब रक्त या पीव बाहर आता है तब उसका अस्वाध्याय होता है। उसकी शुद्धि करके १०० हाथ के बाहर परठकर स्वाध्याय किया जा सकता
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