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[निशोथ सूत्र इन सूत्रों में दत्ति–खुराक का भी उल्लेख है, विहार में न ले जाने का भी कथन है तथा गलाने का भी प्रतिपादन है । अतः यहाँ औषध रूप में अफीम आदि का समावेश भी "वियड" शब्द में समझा जा सकता है।
अफीम का प्रयोग दस्तों को बन्द करने के लिए या बीमार को शान्ति हेतु निद्रा के लिए किया जाता है । इन कार्यों के लिए यह सफल औषध मानी जाती है । प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसकी खुराक भिन्न-भिन्न होती है। अतः ठाणांग सूत्र कथित जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट खुराक के कथन की संगति भी हो जाती है। कई बार लोग अफीम को पानी में गलाकर खरल में घोटकर भी उपयोग करते हैं। जिससे अफीम का अत्यल्प मात्रा में उपयोग किया जा सकता है । आवश्यक होने पर इसे विहार में भी सहज ही ले जाया जाना सम्भव है ।
गलाने के सत्र तथा तीन खुराक के सूत्र के सिवाय शेष पाँच सूत्र तो अन्य अनेक औषधियों में घटित हो सकते हैं। अतः यहाँ "वियड" शब्द से कोई एक पदार्थ विशेष न समझकर सामान्य या विशिष्ट सभी प्रकार की औषधियाँ समझ लेने से प्रस्तुत सूत्रों का अर्थ घटित हो जाता है।
__ "वियड" शब्द का भाष्य चणि में शब्दार्थ नहीं किया गया है और व्याख्या मद्य अर्थ को लक्ष्य रखकर ही की गई है किन्तु बृहत्कल्प सूत्र आदि में मद्य के लिए “मज्ज", "सुरा”, “सौवीर" शब्दों का प्रयोग हुआ है और "वियड" शब्द उनके साथ विशेषण रूप में आया है । जो कि वहाँ पानी के विशेषण रूप में भी प्रयुक्त है । अतः ऊपर कहे गए सात आगम प्रमाणों से वियड शब्द का मद्य के लिए प्रयोग किया जाना सम्भव नहीं है । दशवकालिक अ. ५, उ. २ गाथा ३६ में भी मद्य के लिए 'सुरं वा मेरगं वावि, अण्णं वा मज्जगं रसं' ऐसा. प्रयोग है किन्तु 'वियडं' ऐसा शब्दप्रयोग नहीं है।
आगमों में मद्य-मांस साधु के लिए अभक्ष्य एवं वर्जनीय कहे हैं। इनके सेवन को ठाणांग सूत्र में नरक गति का कारण बताया है एवं मद्य सम्बन्धी प्रागम पाठों में कहीं भी मद्य के स्थान में केवल “वियड" शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है । अतः “वियड' का मद्य अर्थ करना आगम संगत नहीं कहा जा सकता।
___ उपर्युक्त आगम उल्लेखों से यह भी स्पष्ट है कि "वियड' शब्द अधिकांशतः किसी अन्य शब्द के साथ विशेषण रूप में प्रयुक्त हुया है। स्वतन्त्र "वियड" शब्द का प्रयोग केवल दशा. द. ८ में आहार-पानी के अर्थ में तथा ठाणांग व निशीथ के प्रस्तुत प्रकरण में औषध के अर्थ में और आचारांग में निर्दोष आहार के अर्थ में है।
१-४. इन सूत्रों में एषणा के दोषों का प्रायश्चित्त कथन है। भिक्षु को सहन शक्ति, रोग परीषह जय की भावना एवं उत्साह होने पर तो उत्तरा. अ. २, गा. ३३ के अनुसार औषध की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। किन्तु यदि किसी भिक्षु को समाधि बनाए रखने के लिए औषध लेना
हो तो इन सत्रों में कहे गए क्रीत प्रादि दोषों का सेवन न करते हुए शद्ध निर्दोष औषध की गवेषणा करनी चाहिए। उक्त दोषों से युक्त औषधी ग्रहण करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है । पथ्य आहारादि भी उक्त दोषयुक्त ग्रहण करने पर यही प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिए। इन दोषों का विशेष विवेचन चौदहवें उद्देशक में देखें।
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