Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 514
________________ ४१४] [निशीथसूत्र उक्कालियं वा गुणेइ, अत्थं वा सुणेइ । णिसिस्स बितियाए एसा चेव भयणा, सुवइ वा । णिसिस्स ततियाए णिद्दाविमोक्खं करेइ, उक्कालियं गेण्हइ गुणेइ वा, कालियं वा सुत्तं अत्थं वा करेइ । भावार्थ-चारों काल में कालिकश्रुत का स्वाध्याय करना तथा अन्य प्रहरों में उत्कालिकश्रुत का स्वाध्याय करना या अर्थग्रहण करना अर्थात् वांचणी लेना । दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा न तो उत्कालिकश्रुत के स्वाध्याय आदि में लगे रहना । रात्रि के दूसरे प्रहर में भी उक्त स्वाध्याय करे या सोये । रात्रि के तीसरे प्रहर में निद्रा लेकर उससे निवृत्त हो जाए और उस प्रहर का समय शेष हो तो उत्कालिकश्रुत आदि का स्वाध्याय करे। फिर चौथे प्रहर में कालिकश्रुत का स्वाध्याय करे। यह साधु की दिनचर्या एवं रात्रिचर्या का वर्णन स्वाध्याय से हो परिपूर्ण है । उत्काल की पौरूषी में सूत्रों का स्वाध्याय, सूत्रों का अर्थ, आहार, निद्रा आदि प्रवृत्ति की जा सकती है। किन्तु चारों काल, पौरूषी–में केवल स्वाध्याय ही किया जाता है । उत्तरा. अ. २६ के अनुसार उस स्वाध्याय के समय में यदि गुरु आदि कोई सेवा का कार्य कहें तो करना चाहिए और न कहें तो स्वाध्याय में ही लीन रहना चाहिए। यह स्वाध्याय कालिकश्रुत का है। इसमें नया कंठस्थ करना या उसी का पुनरावर्तन करना आदि समाविष्ट है । जब नया कंठस्थ करना पूर्ण हो जाय तब उसकी केवल पुनरावृत्ति करना ही होता है। व्यव. उ. ४ में साधु-साध्वी को सीखे हुए ज्ञान को कंठस्थ रखना आवश्यक बताया है और भूल जाने पर कठोरतम प्रायश्चित्त कहा गया है अर्थात प्रमाद से भूल जाने पर उसे जीवन भर के लिए किसी भी प्रकार की पदवी नहीं दी जाती है और पदवीधर हो तो उसे पदवी से हटा दिया जाता है। केवल वृद्ध स्थविरों को यह प्रायश्चित नहीं पाता है। अतः श्रुत कंठस्थ करना और उसे स्थिर रखना, निरन्तर स्वाध्याय करते रहने से ही हो सकता है। उत्तरा. अ. २६ में स्वाध्याय को संयम का उत्तरगुण बताया है । सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला तथा सर्वभावों की शुद्धि करने वाला कहा है। इन सब पागम वर्णनों को हृदय में धारण करके भिक्षु सदा स्वाध्यायशील रहे और सूत्रोक्त प्रायश्चित्त स्थान का सेवन न करे अर्थात् स्वाध्याय के सिवाय विकथा प्रमाद आदि में समय न बितावे। अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय करने का प्रायश्चित्त १४. जे भिक्खू असज्झाइए सज्झायं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ । १४. जो भिक्षु अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय करता है या स्वाध्याय करने वाले का अनुमोदन करता है । [उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है ।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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