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उन्नीसवां उद्देशक]
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५. प्रत्येक भिक्ष की अफीम आदि विशिष्ट औषधियों की जघन्य मध्यम उत्कृष्ट खुराक (सहज पाचन क्षमता) भिन्न-भिन्न होती है अतः उन्हें उससे अधिक ग्रहण नहीं करना चाहिए । अथवा तीन खुराक से अधिक एक दिन में ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि कई औषधी मात्रा से अधिक ले लेने पर नशा या अन्य हानि उत्पन्न करती हैं। अतः इस सूत्र में औषधी की मात्रा के विषय में सावधान रहने का सूचन किया गया है।
अन्यत्र आगमों में “दत्ति" शब्द का प्रयोग “एक अखण्ड धार" अर्थ में हुआ है। किन्तु यहां औषध प्रकरण में "औषधी की खुराक" करना ही प्रसंग संगत है। क्योंकि औषधी की मात्रा तोला, माशा, रत्ती आदि से कही जाती है किन्तु “एक धार" या एक पसली आदि से नहीं । वर्तमान में भी विशिष्ट औषधी की मात्रा "ग्राम" के अथवा पेय औषधी की मात्रा ढक्कन या बून्द के रूप में कही जाती है।
यद्यपि प्रत्येक औषधी में मात्रा का ध्यान रखना आवश्यक होता है तथापि अफीम या अन्य रासायनिक औषधों में मात्रा का ध्यान रखना अधिक आवश्यक होता है ।
__ इस सूत्र में जो तीन खुराक से अधिक ग्रहण करने का प्रायश्चित्त विधान है वह अफीम अम्बर आदि मादक पदार्थों या स्वर्ण भस्म आदि रसायन की अपेक्षा से समझना चाहिए । अधिक ग्रहण करने पर दाता को या अन्य देखने वालों को साधु के विषय में शंका उत्पन्न हो सकती है । अधिक मात्रा से कोई साधु आत्मघात भी कर सकता है, अतः ऐसे पदार्थ अधिक मात्रा में लाने ही नहीं चाहिए।
६. पूर्व सूत्र में तीन खराक का कथन है जो एक-एक खराक लेने से तीन दिन तक ली जा सकती है । तब तक उत्पन्न रोग प्रायः शान्त हो जाता है ।
विहार में भिक्षु जिस तरह आहार-पानी दो कोश के बाद नहीं ले जा सकता उसी प्रकार औषध भी ग्रामानुग्राम नहीं ले जा सकता । आवश्यक होने पर भिक्षु एक स्थान पर रुककर औषध ले सकता है । विहार में औषधी साथ में लेने से अनेक दोष-परम्परा की वृद्धि होती है, संग्रहवृत्ति बढ़ती है, राज्य सम्बन्धी या चोर सम्बन्धी भय भी रहता है। इत्यादि कारणों से प्रस्तुत सूत्र में विहार में औषध साथ लेने का प्रायश्चित्त कहा गया है ।
७. किसी भी औषध को पानी में भिजोना, गलाना, खरल में घोटना तथा अन्य भी कूटनापीसना आदि प्रवृत्ति करने पर प्रमाद की वद्धि होती है, संपातिम आदि जीवों की विराधना तथा अनेक प्रकार की अयतना होती है। अतः ये क्रियाएँ भिक्षु को नहीं करनी चाहिए। सहज रूप में मिलने वाली औषध का प्रयोग करना ही उपयुक्त है । अन्य क्रियाएँ करने में स्वाध्याय आदि के समय की भी हानि होती है। यदि साधु के लिए गृहस्थ ये प्रवत्तियां करके औषध देवे तो भी ये दोष समझ लेने चाहिए । इन्हीं कारणों से इस सूत्र में प्रायश्चित्त कहा गया है । संध्याकाल में स्वाध्याय करने का प्रायश्चित्त
८. जे भिक्खू चहि संझाहिं सज्झायं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ । तं जहा-१. पुव्वाए संझाए, २. पच्छिमाए संझाए, ३. अवरण्हे, ४. अड्डरत्ते ।
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