Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 498
________________ ३९८ ] [ निशीथसूत्र पूर्वक रहे । उन्हीं आगे-पीछे खींचने आदि नौका चलाने सम्बन्धी प्रवृत्तियों के करने का इन सूत्रों में प्रायश्चित्त कहा गया है । १५-१६. नौका में किसी कारण से पानी भर जाए तो उसे पात्र आदि से निकालना तथा किसी छिद्र आदि से पानी आता दीखे तो उसे किसी भी साधन से बन्द करना या नाविक को सूचना देना भिक्षु को नहीं कल्पता है । भिक्षु को वहाँ एकाग्रता पूर्वक ध्यान में लीन रहकर शान्तचित्त से धैर्य रखते हुए समय व्यतीत करना चाहिए । परिस्थितिवश नौका सम्बन्धी ये कार्य करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त प्राता है । १७-३२. १. नदी के किनारे स्थल में (सचित्त भूमि में ), २. कीचड में, ३. जल में, ४. नावा में, - इन चार स्थानों में रहा हुआ भिक्षु इन चार स्थानों में रहे हुए गृहस्थ से आहार ग्रहण नहीं कर सकता है । आचा० श्रु० २, अ० ३, उ०१ में विधान है कि जब भिक्षु नदी किनारे नौकाविहार के लिए पहुँचे तब चारों प्रकार के प्रहार का त्याग करके सागारी संथारा कर ले एवं साथ में आहारादिन रखे, किन्तु सभी वस्त्र - पात्रादि को एक साथ बांध ले । तब फिर नया आहार ग्रहण करने का तो विकल्प ही नहीं रहता है । क्योंकि भिक्षु प्रप्काय जीवों की विराधना के स्थान पर स्थित है, उस समय उसे प्रहार करना उपयुक्त नहीं है । स्थिरकाय होकर योग-प्रवृतियों से निवृत्त रहना होता है । सामान्यतया भी यदि गोचरी में वर्षा आदि से जल की बूंदें शरीर पर गिर जायें तो उनके सूखने तक आहार नहीं किया जाता है । प्रथम सूत्र के विवेचन में बताये गये कारणों से जाना आवश्यक होने पर नौका- संतारिम जलयुक्त मार्ग होने पर अन्य कोई उपाय न होने से नौकाविहार का सूत्र में विधान है । यदि जंघासंतारिम जल हो तो उसे पार करने के लिए पैदल जाने की विधि प्रा० श्रु०२, ०३, उ०२ में बताई गई है। घाबल क्षीण हो जाने पर या अन्य किसी शारीरिक कारण से विहार न हो सके तो भिक्षु एक स्थान पर स्थिरवास रह सकता है । - व्यव० उ०८, सु० ४ सूत्रोक्त नौकाविहार का विधान प्रवचनप्रभावना के लिए भ्रमण करने हेतु नहीं है, क्योंकि निशीथ उ० १२ में तथा दशा० द०२ में महिने में दो बार और वर्ष में ९ नव बार की ही छूट है । जिसका केवल कल्प मर्यादा पालन हेतु नदी पार करने से सम्बन्ध है । इसके सिवाय प्रवचनप्रभावना के लिए पादविहारी भिक्षु को वाहनों के प्रयोग का संकल्प करना भी संयम जीवन में अनुचित है । उत्सर्ग विधानों के अनुसार संयमसाधना करने वाले भिक्षु को पादविहार ही प्रशस्त है और अपवाद विधानों के अनुसार परिमित जल-मार्ग को नौका द्वारा पार करने का आगम में विधान है । अन्य वाहनों के उपयोग करने का निषेध प्रश्न. श्रु० २ ० ५ में है । वहाँ हाथी घोड़े प्रादि वाहन, रथ प्रादि यान तथा डोली पालकी आदि वाहन का निषेध है । विशेष परिस्थिति में उनके अपवादिक उपयोग का निर्णय गीतार्थ की निश्रा से विवेक पूर्वक करना चाहिए। यान वाहन के कारणों को रीतादि दोष संबंधी प्रायश्चित्तों को इन नावा सूत्रों के अनुसार जान लेना चाहिए । I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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