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बारहवां उद्देशक]
[२७७ "दिवसस्स पढम पोरिसीए भत्तपाणं घेत्तु, चरिमंति-चउत्थ पोरिसी, तं जो संपावेति, तस्स चउलहु।"
"कालो अणुण्णातो आदिल्ला तिण्णि पहरा, बीयाई वा तिण्णि पहरा । तम्मि अणुण्णाए काले जइवि दोसेहि फुसिज्जति तहावि अपच्छित्ती। अणुण्णात कालातो परेण अतिकामेतो असंतेहिं वि दोसेहिं सपच्छित्ती भवति ।"
भाष्य तथा चूणि में कहा गया है कि संग्रह करने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं
१. चीटियां आदि आहार में आ जावे तो उन्हें निकालना कठिन होता है तथा उनकी विराधना होती है।
२. कुत्ते आदि से सावधानी रखने के लिये अनेक प्रवृत्तियां करनी पड़ती हैं ।
तथा अन्य अनेक दोषों की संभावना भी रहती है। अत: भिक्षु जिस प्रहर में आहार लावे उसी प्रहर में खाकर समाप्त कर दे। दसरे प्रहर में भी नहीं रखे। क्योंकि रखने पर उपयूक्त दोषों की संभावना रहती है।
__ भाष्यकार ने यह भी कहा है कि जिनकल्पी भिक्षु यदि दूसरे प्रहर में रखे तो उसे प्रायश्चित्त आता है । किन्तु स्थविरकल्पी भिक्षु को तीन प्रहर तक रखना अनुज्ञात है। कारणवश यतनापूर्वक रखने पर भी यदि चीटियां आ जाएं तो भी उन्हें प्रायश्चित्त नहीं है और चौथे प्रहर में रखने पर उक्त दोष न होने पर भी प्रायश्चित्त कहा हैजयणाए धरेंतस्स जदि दोसा भवंति तहावि सुज्झति, आगम प्रामाण्यात् ।
-भा. गा. ४१४८ चूणि. इस सूत्र में प्रथम प्रहर के ग्रहण किये हुए आहार को चतुर्थ प्रहर में रखने का लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है । बृहत्कल्पसूत्र के चौथे उद्देशक में उसे खाने का भी लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है।
चूणि के अनुसार यह सूत्र भी बृहत्कल्प उ. ४ के सूत्र के समान ही होना चाहिए, क्योंकि "आहच्च उवाइणाविए सिया” इस वाक्य की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने खाने का भी लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है । किन्तु जिनकल्पी यदि चौथे प्रहर में रखे या खाये तो उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है।
___ जब जितने घण्टे मिनट का दिन होता है उसमें ४ का भाग देने पर जितने घंटे मिनट पाएँ उन्हें सूर्योदय के समय में जोड़ने पर एक पोरिसी का कालमान होता है और सूर्यास्त के समय में घटाने से चौथी पोरिसी का कालमान प्राप्त होता है ।। आहार की क्षेत्रमर्यादा के उल्लंघन का प्रायश्चित्त
३३. जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा उवाइणावेइ उवाइणावेतं वा साइज्जइ ।
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