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[ निशीथसूत्र
८६. जे भिक्खू णितियस्स असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा परिच्छद्द, पडिच्छतं वा साइज्जइ ।
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७७. जो भिक्षु पार्श्वस्थ को प्रशन, पान, खादिम या स्वादिम प्रहार देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है ।
७८. जो भिक्षु पार्श्वस्थ से प्रशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार लेता या लेने वाले का अनुमोदन करता है ।
७९. जो भिक्षु अवसन्न को अशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है ।
८०. जो भिक्षु प्रसन्न से प्रशन, पान, खादिम या स्वादिम प्रहार लेता है या लेने वाले का नोदन करता है ।
८१. जो भिक्षु कुशील को अशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है ।
८२. जो भिक्षु कुशील से प्रशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है ।
८३. जो भिक्षु संसक्त को प्रशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है ।
८४. जो भिक्षु संसक्त से अशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है ।
८५. जो भिक्षु नित्यक को प्रशन, पान, खादिम या स्वादिम प्रहार देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है ।
८६. जो भिक्षु नित्यक से प्रशन, पान, खादिम या स्वादिम श्राहार लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है । ( उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।)
विवेचन- गृहस्थ को आहार देने पर उसके सावद्य जीवन का अनुमोदन होता है । उसी का पूर्व सूत्र ७६ में प्रायश्चित्त कहा गया है। पार्श्वस्थ आदि भिक्षुओं को आहार देने पर उनके एषणा दूषित प्रवृत्तियों का अनुमोदन होता है तथा पार्श्वस्थ आदि से आहार लेने में उद्गम आदि दोष युक्त आहार का सेवन होता है । अतः इनसे आहार लेने-देने का प्रायश्चित्त इन १० सूत्रों में कहा गया है ।
पार्श्वस्थ आदि का स्वरूप चौथे उद्देशक के विवेचन में कहा जा चुका है ।
पार्श्वस्थ श्रादि पांचों सूत्रों का क्रम यहां चौथे उद्देशक के समान है, किन्तु १३वें उद्देशक में कुछ व्युत्क्रम हुआ है, जो लिपिदोष से होना संभव है ।
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