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सोलहवां उद्देशक]
[३५५ कदाचित् गृहस्थ रहित स्थान आहार करने के लिए न मिले तो भिक्षु एक ओर या चारों ओर वस्त्र का पर्दा लगाकर भी आहार कर सकता है ।
यदि भिक्षु अकेला ही आहार करने वाला हो तो गृहस्थ की तरफ पीठ करके विवेकपूर्वक आहार कर सकता है । तात्पर्य यह है कि गृहस्थ न देखे, ऐसे स्थानों में बैठकर ही भिक्षुत्रों को आहारादि का उपयोग करना चाहिए। प्राचार्य उपाध्याय की आराधना का प्रायश्चित्त
३८. जे भिक्खू आयरिय-उवझायाणं सेज्जा-संथारयं पाएणं संघद्देत्ता हत्थेणं अणणुण्णवेत्ता धारयमाणे गच्छइ, गच्छंतं वा साइज्जइ ।
३८. जो भिक्षु आचार्य-उपाध्याय के शय्या-संस्तारक को पैर से स्पर्श हो जाने पर हाथ से विनय किए बिना मिथ्या दुष्कृत दिए बिना चला जाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है।)
विवेचन-किसी की कोई भी वस्तु के पांव लगाना अविवेकपूर्ण आचरण है। प्राचार्य और उपाध्याय तो सम्पूर्ण गच्छ में सबसे अधिक सम्माननीय होते हैं। अतः प्रत्येक साधु को उनका विनयबहुमान करना ही चाहिए। उनके शय्या-संस्तारक-बिछौने के पांव लग जाना भी अविनय एवं
अविवेक का द्योतक है और उनके शरीर, आहार, वस्त्रादि के पांव लगना भी अविनय है । अतः ' भिक्षु को प्राचार्यादि के या उनकी उपधि एवं पाहारादि के निकट से अत्यन्त विवेकपूर्वक गमनागमन करना चाहिए। चूणि में कहा है
___ हत्येण अणणुण्णवेत्ता-हस्तेन स्पृष्ट्वा न नमस्कारयति, मिथ्यादुष्कृतं च न भाषते, तस्स चउलहुँ।
कदाचित् आचार्यादि के संस्तारक पर भिक्षु का पांव लग जाए तो उस भिक्षु को वहां विद्यमान आचार्यादि से विनयपूर्वक क्षमायाचना करनी चाहिए। यदि वे अन्यत्र हों तो पांव से अविनय होने की प्रतिपूर्ति में हाथ से स्पर्श कर विनय करना और "मिच्छामि दुक्कडं" कह कर भूल स्वीकार करना चाहिए । यदि पांव से कोई रज आदि लग जाए तो उसे साफ करना चाहिए ।
अन्य साधु की कोई उपधि या शरीर आदि के पांव लग जाए तो भी इसी प्रकार का विवेक प्रदर्शित करना चाहिए।
___ जो भिक्षु ऐसे प्रसंगों में कुछ भी विनय-विवेक किए बिना जैसे चल रहा है वैसे ही सीधा चला जाए तो उसे सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है।
क्योंकि ऐसा करने से प्राचार्यादि के प्रति सम्मान नहीं रहता है, अविवेक की परम्परा प्रचलित होती है, देखने वालों को अविनय का अनुभव होता है, गच्छ की अवहेलना होती है, अन्य साधु भी उसी का अनुसरण करें तो गच्छ में अविनय की वृद्धि होती है।
यद्यपि प्रासन आदि पदार्थ वंदनीय नहीं हैं, तथापि पैर के स्पर्श से हुए अविनय की निवृत्ति के लिए केवल हाथ से स्पर्श कर विनयभाव प्रकट करना चाहिए, यह सूत्र का प्राशय है ।
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