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[निशीथसूत्र आचारांग टीका में निक्षिप्तदोष के निषेध से एषणा के दस ही दोषों का निषेध समझ लेने का कथन किया है। क्योंकि वे सभी दोष आहार ग्रहण करते समय पृथ्वी आदि की विराधना से संबंधित हैं, इसलिए उन दसों दोषों का प्रायश्चित्त भी इसी सूत्र से समझा जा सकता है । शीतल करके दिया जाने वाला आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त
१३२. जे भिक्खू अच्चुसिणं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा
१. सुप्पेण वा, २. विहुणेण वा, ३. तालियंटेण वा, ४. पत्तेण वा, ५. पत्तभंगेण वा, ६. साहाए वा, ७. साहाभंगेण वा, ८. पिहुणेण वा, ९. पिहुणहत्येण वा, १०. चेलेण वा, ११. चेलकण्णेण वा, १२. हत्थेण वा, १३. मुहेण वा फुमित्ता वीइत्ता आहटु देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।
१३२. जो भिक्षु अत्यन्त उष्ण अशन, पान, खादिम या स्वादिम पदार्थ को
१. सूप से, २. पंखे से, ३. ताडपत्र से, ४. पत्ते से, ५. पत्रखंड से, ६. शाखा से, ७. शाखाखंड से, ८. मोरपंख से, ९. मोरपीछी से, १०. वस्त्र से, ११. वस्त्र के किनारे से, १२. हाथ से या १३. मुह से फूक देकर या पंखे आदि से हवा करके लाकर देने वाले से ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है।।
(उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-पंखे आदि से हवा करने पर वायुकाय के जीवों की विराधना होना निश्चित्त है तथा उड़ने वाले छोटे प्राणियों को भी विराधना होना सम्भव है। अतः इस प्रकार (वायुकाय की) विराधना करके शीतल किया गया आहार लेना भिक्षु को नहीं कल्पता है । प्राचा. श्रु. २, अ. १, उ. ७ में इसका निषेध किया गया है और प्रस्तुत सूत्र में इसका प्रायश्चित्त कहा गया है।
चौड़े बर्तन में उष्ण आहारादि डालकर कुछ देर रख कर ठण्डा करके दे तो परिस्थितिवश वह आहारादि लिया जा सकता है, किन्तु उसमें भी संपातिम जीव न गिरे ऐसा विवेक रखना आवश्यक है।
- दशवै. अ. ४ में भिक्षु को मुह से फूक देने का और पंखे आदि से हवा करने करवाने एवं अनुमोदन करने का पूर्ण त्यागी कहा गया है।
वायुकाय की विराधना होने के कारण उष्ण आहार पानी के लेने का यहाँ प्रायश्चित्त कहा गया है, आचारांगसूत्र में वायुकाय की विराधना किये बिना उष्ण आहारादि ग्रहण करने का विधान किया गया है, तथापि अत्यन्त उष्ण आहारादि ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि उसे देने में उसके छींटे से या भाप से दाता या साधु का हाथ आदि जल जाय या उष्णता सहन न हो सकने से हाथ में से बर्तन ग्रादि छट कर गिर जाय या साधु के पात्र का लेप (रोगानादि) खराब हो जाय अथवा पात्र फट जाय, इत्यादि दोष सम्भव हैं । अतः वैसे अत्यन्त गर्म आहार-पानी साधु को नहीं लेने चाहिए । कुछ समय बाद उष्णता कम होने पर ही वे ग्राह्य हो सकते हैं।
__गर्मागर्म पानी से दाता या भिक्षु के अधिक जल जाने पर धर्म की अवहेलना होती है । पात्र फूट जाने पर परिकर्म करने से या अन्य पात्र की गवेषणा करने में समय लगने से स्वाध्यायादि संयम
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