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सत्रहवाँ उद्देशक]
[३८५ लोटे आदि से भी पानी ले सकता है किन्तु पाहार के लिये इस प्रकार का कोई विधान प्रागम में नहीं है एवं न ही इस प्रकार से आहार के स्वयं लेने को परम्परा है ।
एक बार अचित्त बना हुआ पानी पुनः कालान्तर से सचित्त भी हो सकता है। क्योंकि एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव पुनः उसी काय के उसी शरीर में उत्पन्न हो सकते हैं । —सूय ० श्रु० २, अ० ३
दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन की चूर्णि में कहा गया है कि गर्मी में एक अहोरात्र से एवं सर्दी और वर्षाकाल में पूर्वाह्न (सुबह) में गर्म किये जल के अपराह्न (सायंकाल) में सचित्त होने की सम्भावना रहती है।
यथा-गिम्हे अहोरत्तेणं सच्चित्ती भवति, हेमन्त वासासु पुवण्हे कतं अवरण्हे सचित्ती भवति । -दश. चूणि पृष्ठ ६१, ११४
धोवण-पानी के विषय में कुछ समय से ऐसी भ्रांत धारणा प्रचलित हुई है कि इसके अचित्त रहने का काल नहीं बताया गया है अथवा इसमें शीघ्र जीवोत्पत्ति हो जाती है, अतः वह साधु को अकल्पनीय है।
इस प्रकार का कथन करना आगम प्रमाणों से उचित नहीं है । क्योंकि आगमों में अनेक प्रकार के धोवण-पानी लेने का विधान है, साथ ही तत्काल बना हुआ धोवण-पानी लेने का निषेध है एवं उसके लेने का प्रायश्चित्त भी कहा गया है। उसी धोवण-पानी को कुछ देर के बाद लेना कल्पनीय कहा गया है । अतः धोवण-पानी का ग्राह्य होना स्पष्ट है।
__कल्पसूत्र की कल्पान्तर वाच्य टीका में अनेक प्रकार के धोवण-पानी की चर्चा करके उन्हें साधु के लिये तेले तक की तपस्या में लेना कल्पनीय कहा है और निषेध करने वालों को धर्म एवं आगम निरपेक्ष और दुर्गति से नहीं डरने वाला कहा है । यथा
"परकीयमवश्रावणादिपानमतिनीरसमपि यदशनाहारतया वर्णयंति कांजिकं चानंतकायं वदंति तत्तेषामेवाहारलांपट्यं धर्मागमनिरपेक्षता दुर्गतेरभीरूता केवलं व्यनक्ति।" -कल्प. समर्थन पृ. ५०
यहाँ उल्लेखनीय यह है कि इस व्याख्या के करने वाले तपगच्छ के प्राचार्य हैं, उन्होंने अवस्रावण आदि का निषेध करने वाले खतरगच्छ एवं अंचलगच्छ वालों को लक्ष्य करके बहुत कुछ कहा है। -कल्प. समर्थन प्रस्तावना।
___ इसके प्रत्युत्तर में खरतरगच्छीय प्राचार्य जिनप्रभसूरि ने प्राधाकर्मी गर्म पानी लेने का खंडन एवं अचित्त शीतल जल लेने का मण्डन करने वाला 'तपोटमतकुट्टन' श्लोकबद्ध प्रकरण लिखकर तपगच्छ के प्राचार्यों को आक्रोश की भाषा में बहुत लिखा है । देखें-प्रबन्ध पारिजात पृ० १४५-१४६
आचारांग श्रु० १, अ० १, उ० ३ की टीका में धोवण-पानी के अचित्त होने का एवं साधु के लिये कल्पनीय होने का वर्णन है । वहां पानी को अचित्त करने वाले अनेक प्रकार के पदार्थों का वर्णन भी है।
प्रवचनसारोद्धार द्वार १३६ गाथा ८८१ में प्रासुक अचित्त शीतल जल के ग्राह्य होने का कथन है तथा गाथा ८८२ में उष्ण जल एवं प्रासुक शीतल जल दोनों के अचित्त रहने का काल भी
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