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सत्रहवाँ उद्देशक]
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विवेचन-कोई भिक्षु अपने शरीर के लक्षणों का इस प्रकार कथन करे कि 'मेरे हाथ-पांव आदि में जो रेखाएं हैं या जो चन्द्र, चक्र, अंकुश आदि चिह्न हैं तथा मेरा शरीर सुडौल एवं प्रमाणोपेत है, इन लक्षणों से मैं अवश्य प्राचार्य बनूगा,' इस प्रकार कथन करने पर उसे सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है।
प्राचार्य होने का अभिमान करना ही दोष है। इस प्रकार अभिमान करने से कदाचित् कोई क्षिप्तचित्त हो जाता है, निमित्त लक्षण ज्ञान असत्य भी हो जाता है। कोई वैरभाव रखने वाला उसका प्राचार्य होना जानकर उसे जीवनरहित करने का प्रयास कर सकता है इत्यादि दोषों की सम्भावना जानकर तथा भगवदाज्ञा समझकर भिक्षु अपने ऐसे लक्षणों को प्रकट न करे किन्तु गम्भीर व निरभिमान होकर संयमगुणों में प्रगति करता रहे ।
घमंड करने से तथा स्वयं अपनी प्रशंसा करने से गुणों को तथा पुण्यांशों की क्षति होती है ।
नवीन प्राचार्य स्थापित करते समय स्थविर या प्राचार्यादि जानकारी करना चाहें अथवा कभी अयोग्य को पद पर स्थापित किया जा रहा हो तो संघ की शोभा के लिये स्वयं या अन्य के द्वारा अपने लक्षणों की जानकारी दी जा सकती है, किन्तु उसमें मानकषाय, कलह या दुराग्रह के विचार नहीं होने चाहिये।
गायन प्रादि करने का प्रायश्चित्त
१३५. जे भिक्खू-१. गाएज्ज वा, २. हसेज्ज वा, ३. वाएज्ज वा, ४. णच्चेज्ज वा, ५. अभिणएज्ज वा, ६. हय-हेसियं वा, ७. हत्थिगुलगुलाइयं वा, ८. उक्किट्ठसोहणायं वा करेइ, करेंतं वा साइज्जइ।
१३५. जो भिक्षु-१. गाये, २. हँसे, ३. वाद्य बजाये, ४. नाचे, ५. अभिनय करे, ६. घोड़े की आवाज (हिनहिनाहट), ७. हाथी की गर्जना (चिंघाड) और ८. सिंहनाद करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।)
विवेचन-उक्त सभी प्रवृत्तियां कुतूहलवृत्ति की द्योतक हैं तथा मोहकर्म के उदय एवं उदीरणा से जनित हैं । भिक्षु इन्द्रियविजय एवं मोह की उपशांति में प्रयत्नशील होता है अतः उसके लिये ये अयोग्य प्रवृत्तियाँ हैं।
धर्मकथा में यदि धर्मप्रभावना के लिये कभी गायन किया जाय तो उसे प्रायश्चित्त का विषय नहीं कहा जा सकता है । किन्तु जनरंजक, धर्मनिरपेक्ष गीत हो तथा गायन कला प्रदर्शन का लक्ष्य हो तो प्रायश्चित्तयोग्य होता है।
हँसना, वादिंत्र आदि बजाना, नृत्य करना, नाटक करना, कुतूहल से किसी की नकल करना तथा हाथी, घोड़े, बंदर, सिंह आदि पशुओं की आवाज की नकल करना इत्यादि संयम-साधनामार्ग में निरर्थक प्रवृत्तियाँ होने से त्याज्य हैं तथा इन प्रवृत्तियों में आत्म-संयम एवं जीवविराधना भी संभव है। ऐसा करने वाले को उत्तरा. अ० ३५ में कांदपिकभाव करने वाला कहा है, जो संयमविराधक होकर दुर्गति प्राप्त करता है । इसलिए सूत्र में ऐसी प्रवृत्तियों का प्रायश्चित्त कहा गया है ।
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