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[निशीथसूत्र
कहा है । उसकी टीका में स्पष्ट किया गया है कि उष्ण पानी जितना ही चावल आदि के धोवण का भी अचित्त रहने का काल है।
उसिणोदगं तिदंडुक्कालियं, फासुयजलाति जइ कप्पं ।
नवरि गिलाणाइकए पहरतिगोवरि वि धरियव्वं ॥५१॥ त्रिभिर्दण्डे-उत्कालैरूत्कालितं प्रावृतं यदुष्णोदकं तथा यत्प्रासुक-स्वकाय परकाय शस्त्रोपहतत्वेन अचित्तभूतं जलं तदेव यतीनाम् कल्प्यं, गृहीतुमुचितं ।
जायइ सचित्तया से गिम्हमि पहरपंचगस्सुरि ।
चउपहरोवरि सिसिरे वासासु पुणो तिपहरूवरि ॥ ८८२॥ तदूर्ध्वमपि ध्रियते तदा क्षारः प्रक्षेपणीयो, येन भूयः सचित्तं न भवतीति ।
लघुप्रवचन सारोद्धार की मूलगाथा ८५ में भी दोनों प्रकार के अचित्त पानी का काल समान कहा है । यथा
खाइमि तले विवच्चासे, ति-चउ-पण जाम उसिणनीरस्स।
वासाइसु तम्माणं, फासुय-जलस्सावि एमेव ॥८५॥ इस प्रकार टीका-ग्रन्थों में दोनों प्रकार के जलों के प्रासुक रहने का काल भी मिलता है और आगमों में तो दोनों प्रकार के प्रासुक जलों को ग्रहण करने का विधान है ही। अतः पूर्वोक्त प्रचलित धारणा भ्रांत है और वह पागमसम्मत नहीं है।
स्थानांगसूत्र के तीसरे स्थान में उपवास आदि तपस्या में भी धोवण-पानी पीने का विधान किया गया है तथा कल्पसूत्र के समाचारी प्रकरण में चातुर्मास में किये जाने वाले उपवास, बेला, तेला में चावल, आटे, तिल आदि के धोवण-पानी का तथा ओसामण या कांजी आदि कुल ९ प्रकार के पानी का उल्लेख करके समस्त प्रकार के अचित्त जलों को लेने का विधान किया गया है। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि धोवण पानी को अकल्पनीय या शंकित मानना या ऐसा प्रचार करना उचित नहीं है।
सारांश यह है कि एषणा दोषों से रहित आगमसम्मत किसी भी अचित्त जल को ग्राह्य समझना चाहिए एवं उसका निषेध नहीं करना चाहिए। साथ ही उन्हें ग्रहण करने में वह पानी अचित्त हुया है या नहीं, इसकी परीक्षा करने का तथा मौसम के अनुसार उसके चलितरस होने का एवं पुनः सचित्त होने के समय का विवेक अवश्य रखना चाहिए। अपने आपको प्राचार्य-लक्षणयुक्त कहने का प्रायश्चित्त
१३४. जे भिक्खू अप्पणो आयरियत्ताए लक्खणाई वागरेइ, वागरंतं वा साइज्जइ । ___ १३४. जो भिक्षु स्वयं अपने को प्राचार्य के लक्षणों से सम्पन्न कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है।
(उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है।)
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