Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 479
________________ सत्रहवां उद्देशक] [३७९ १२९. जो भिक्षु सचित्त जल पर स्थित अशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार को लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है । १३०. जो भिक्षु सचित्त अग्नि पर स्थित अशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार को लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। १३१. जो भिक्षु सचित्त वनस्पति पर स्थित अशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार को लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।) विवेचन-भिक्षु को सचित्त नमक, मिट्टी आदि पर, सचित्त पानी पर या पानी के बर्तन पर, अंगारों पर या चूल्हे पर तथा सचित्त घास सब्जी आदि पर कोई खाद्य पदार्थ या खाद्य पदार्थ युक्त बर्तन पड़ा हो तो उसमें से लेना नहीं कल्पता है । प्राचा. श्रु. २, अ. १, उ. ७ में पृथ्वी आदि पर रखा आहार लेने का निषेध है, यहाँ उसी का प्रायश्चित्त विधान है। ऐसा निक्षिप्त-दोषयुक्त आहार लेने पर उन एकेन्द्रिय जीवों की विराधना होती है ती है। अनन्तर-निक्षिप्त का यह सत्रोक्त प्रायश्चित्त है। भाष्य में परस्पर-निक्षिप्त का मासिक प्रायश्चित्त कहा है और यदि अनंतकाय पर निक्षिप्त आहार हो तो उसे ग्रहण करने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है । प्रश्न-सचित्त पृथ्वी आदि पर से खाद्य पदार्थ उठाने पर तो उन जीवों पर से भार हटता है और उन्हें शांति मिलती है । अतः उस आहार को ग्रहण करने का निषेध क्यों किया गया है ? समाधान-एकेन्द्रिय जीवों को स्पर्श मात्र से महान वेदना होती है। उस पर से खाद्य पदार्थ या बर्तन साधु के लिये उठाने से कुछ जीवों का संघट्टन होता है। जिससे उनको साधु के निमित्त से महती वेदना होती है । इस विराधना के कारण ऐसा आहार लेने का निषेध व प्रायश्चित्त कहा गया है। -(चूर्णि) यहाँ पर निक्षिप्तदोष का प्रायश्चित्त विधान है, फिर भी एषणा के "पिहित" दोष का प्रायश्चित्त भी इसी सूत्र से समझ लेना चाहिये, अर्थात् खाद्य पदार्थ पर रखे सचित्त पदार्थ को हटाकर दिया जाने वाला आहार ग्रहण करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। . यहाँ पृथ्वी आदि की विराधना होने के कारण प्रायश्चित्त कहा गया है। संस्पृष्टदोष का कथन इस सूत्र में या एषणा दोषों में भी कहीं नहीं है, तथापि उसमें पृथ्वीकाय आदि की विराधना होने के कारण पिहितदोष के समान सचित्त से संस्पृष्ट आहार लेने का प्रायश्चित्त भी इसी सूत्र से समझ लेना चाहिये। अनंतर-संस्पर्श में तो विराधना होना स्पष्ट ही है । किन्तु परंपर-स्पर्श में कभी विराधना हो सकती है और कभी नहीं । अतः विराधना संभव न हो तो परंपर-स्पर्श वाले खाद्य पदार्थ ग्रहण करने में प्रायश्चित्त नहीं आता है । खाद्य पदार्थ के समान ही वस्त्र आदि सभी उपकरणों के ग्रहण करने में भी सूत्रोक्त विवेक व प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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