________________
सत्रहवां उद्देशक ]
[ ३७७
विवेचन - भूमि पर खड़े-खड़े सरलता से नहीं लिये जा सकते हों तो ऐसे ऊँचे स्थान पर रखे हुए आहार आदि लेना मालापहृत दोष है । चूर्णि में इसके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करके यह बताया है कि उत्कृष्ट मालापहृत की अपेक्षा यह प्रायश्चित्त कथन समझना चाहिये । यथा
सुत्तनिपातो उक्कोसयम्मि, तं खंधमादिसु हवेज्जा - - भाष्य गा. ५९५२ अर्थात् निःसरणी आदि लगाकर जहाँ से वस्तु प्राप्त की जाती है ऐसे ऊँचे स्थानों का तथा वैसे ही नीचे तलघर आदि स्थानों का आहार भी मालापहृत समझना चाहिये ।
निःसरणी के खिसकने से अथवा चढ़ने-उतरने वाले की स्वयं की असावधानी से वह गिर सकता है, उसके हाथ पांव आदि टूट सकते हैं, 'साधु को देने के लिये चढ़ते-उतरते यह गिर गया या साधु ने गिरा दिया' ऐसी अपकीर्ति हो सकती है इत्यादि अनेक दोषों की संभावना रहती है ।
मालापहृत आहार का दश. अ. ५ उ. १ में तथा श्राचा. श्रु. २, प्र. १, उ. ७ में स्पष्ट निषेध किया गया है तथा प्राण, भूत, जीव और सत्व की विराधना होने की संभावना कहकर कर्मबंध SIT कारण भी कहा है । पिंडनियुक्ति में इसे उद्गम दोषों में बताया गया है ।
सामान्य ऊँचे स्थान से या नहीं गिरने वाले साधन से अथवा स्थायी चढ़ने-उतरने के साधन से प्रा-जाकर दिया जाने वाला आहार मालापहृत दोष वाला नहीं होता है । आचा. श्रु. २., अ. १, उ. ७ में भी इस संबंध में विस्तृत विवेचन किया गया है ।
कोठे में रखा हुआ प्रहार लेने का प्रायश्चित्त
१२६. जे भिक्खू कोट्टियाउतं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा उक्कुज्जिय निक्कुज्जिय ओहरिय देज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ।
१२६. जो भिक्षु कोठे में रखे हुए प्रशन, पान, खादिम या स्वादिम को ऊँचा होकर या नीचेझुककर निकालकर देते हुए से लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है । ( उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त श्राता है | )
विवेचन - मिट्टी, गोबर, पत्थर या धातु श्रादि के कोठे होते हैं । जो कोठे अत्यधिक ऊँचे या नीचे हों अथवा बहुत बड़े हों, जिनमें से वस्तु निकालने में निःसरणी आदि की आवश्यकता तो नहीं पड़ती है किन्तु कठिनाई से वस्तु निकाली जाती है, अर्थात् ऊँचे होना, नीचे झुकना आदि कष्टप्रद क्रिया करनी पड़ती है तो ऐसे कोठे आदि से आहारादि लेने का निषेध प्राचा. श्रु. २ अ. १ उ. ७ में किया गया है और यहाँ इसका प्रायश्चित्त कहा गया है ।
आचारांग में मालापहृत वर्णन के अनंतर सूत्र से ही इस विषय का कथन करके इसे एक प्रकार का मालापहृत दोष माना है और यहाँ प्रायश्चित्त कथन में भी मालापहृत के अनंतर ही इसका | टीका में इसे तिर्यक् मालापहत भी कहा गया है । अन्य विवेचन प्राचारांगसूत्र में देखें ।
कथन
उद्भिन्न प्रहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त
१२७. जे भिक्खू मट्टिओलित्तं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा उभिदिय निभिदिय वेज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org