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सोलहवां उद्देशक]
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यहाँ पर एकवचन का प्रयोग न करके 'पाय चउत्थेहिं' ऐसा बहुवचनांत शब्द का प्रयोग किया गया है ।
२. व्यव. उ. २ में परिहारतप प्रायश्चित्त वहन करने वाले भिक्षु के लिए आहार करने का विधान करते हुए पात्र की अपेक्षा से पाँच शब्दों का प्रयोग किया है
'सयंसि वा पडिग्गहंसि, सयंसि वा पलासगंसि, सयंसि वा कमंडलंसि, सयंसि वा खुब्बगंसि, सयंसि वा पाणिसि ।'
यहाँ आहार के पात्र के लिए 'पडिग्गहंसि' शब्द है । मात्रक के लिए 'पलासगंसि' शब्द है और पानी के पात्र के लिए 'कमंडलंसि' शब्द है । इस पाठ में भी अनेक प्रकार के पात्र होने का कथन स्पष्ट है।
___३. भगवतीसूत्र श. २, उ. ५ में गौतमस्वामी के गोचरी जाने के वर्णन में उनके अनेक पात्रों का वर्णन है
तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि जाव भायणाई वत्थाई पडिलेहेइ भायणाई वत्थाई पडिलेहिता भायणाई पमज्जइ, भायणाई पमज्जित्ता भायणाई उग्गाहेइ, भायणाई उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव भिक्खायरियं अडइ जाव एसणं अणेसणं आलोएइ आलोएत्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ ।
इस वर्णन में बताया गया है कि गौतमस्वामी ने बहुत से पात्रों का प्रतिलेखन, प्रमार्जन किया तथा गोचरी में लाए हुए आहार तथा पानी दोनों भगवान् को दिखाए । यहाँ पर गौतमस्वामी के अनेक पात्र होने का स्पष्ट वर्णन है।
४. भगवतीसूत्र श. २५, उ. ७ में उपकरण-ऊणोदरी का वर्णन इस प्रकार है'से कि तं उवगरणोमोयरिया ? उवगरणोमोयरिया एगे वत्थे, एगे पाए, चियत्तोवगरणसाइज्जणया।'
यहाँ एक वस्त्र (चद्दर) एवं एक पात्र रखने से ऊणोदरी तप होने का कथन है । इससे अनेक वस्त्र एवं अनेक पात्र रखना स्पष्ट सिद्ध होता है, क्योंकि अनेक वस्त्र-पात्र कल्पनीय हों तब ही एक वस्त्र या पात्र रखने से ऊणोदरी तप हो सकता है ।
५. प्रश्नव्याकरणसूत्र श्रु. २, अ. ५ में पात्र के उपकरणों में 'पटल' की संख्या तीन कही गई है। पटल का उपयोग पात्रों को बांधकर रखते समय किया जाता है। पात्र के बीच में रखे जाने के कारण इन को 'पटल' (अस्तान) कहा गया है। इनकी संख्या तीन कही गई है अतः पात्र तो तीन से ज्यादा होना स्वतः सिद्ध हो जाता है । एक या दो पात्र के लिए तीन पटल की आवश्यकता नहीं होती है । व्याख्याकारों ने पटल का उपयोग गोचरी में भ्रमण करते समय आहार के पात्रों को ढंकने का बताया है, पाँच सात पटल रखना भी कह दिया है। किन्तु आगम में प्राहार के पात्रों को ढांकने के लिए झोली एवं रजस्त्राण उपकरण अलग कहे गये हैं, अतः पटल का उपर्युक्त उपयोग ही उचित है।
६. प्राचा. श्रु. २, अ. ६ में पात्र सम्बन्धी पाठ इस प्रकार है
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