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[निशीथसूत्र
निशीथिया-यह रजोहरण की डंडी के ऊपर लपेटने का वस्त्र होता है। इसका आगम में कहीं भी निर्देश नहीं है । अतः यह परम्परा से रजोहरण की डंडी पर लपेटने के लिए है। इससे रजोहरण व्यवस्थित बंधा रहता है और वस्त्र युक्त काष्ठ दंड से पशु आदि कोई भयभीत भी नहीं होते हैं । कसीदा एवं रंगों से युक्त निशीथिया रखने की और दो-तीन निशीथिये लपेटकर रखने की प्रवति भी है, जो केवल परम्परामात्र है । जिसका संयम की अपेक्षा से कोई महत्त्व नहीं है और ऐसे चित्रविचित्र रंग-बिरंगे कसीदे वाले उपकरण साधु के लिए अकल्पनीय भी हैं।
ये सब वस्त्र सम्बन्धी उपकरण कहे गये हैं। आगमों में इन सभी के माप का स्पष्ट वर्णन नहीं है । अतः भिक्षु ममत्व भाव न करते हुए उपयोगी वस्त्र आवश्यकता एवं गण समाचारी के अनुसार रख सकता है। किन्तु उन सभी वस्त्रों का कुल माप तीन अखण्ड वस्त्र (थान-ताका) से अधिक होने पर उन्हें सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है और निशी. उ. १८ के अनुसार सकारण (अशक्ति प्रादि से) आज्ञा पूर्वक मर्यादा से अतिरिक्त वस्त्र रखे जाने पर प्रायश्चित्त नहीं पाता है।
साध्वी के लिए-पागमों में ४ चद्दरों का और उनकी चौड़ाई का कथन है । 'उग्गहणंतक' और 'उग्गहपट्टक' ये दो उपकरण विशेष कहे गए हैं। आगमों में साध्वी के उपकरणों का भी अलगअलग स्पष्ट माप नहीं है । अतः साध्वियां भी आवश्यकता और समाचारी के अनुसार उपकरण रख सकती हैं किन्तु अकारण एवं आज्ञा बिना चार अखंड वस्त्र के माप से अधिक वस्त्र रखने पर उन्हें भी सूत्रोक्त प्रायश्चित्त समझना चाहिए ।
शीलरक्षा के लिए और शरीर-संरचना के कारण कुछ उपकरण संख्या व माप में अधिक होने से इनके लिए बृहत्कल्पसूत्र में एक अखण्ड वस्त्र अधिक कहा गया है।
उग्गहणंतक-उग्गहपट्टक-गुप्तांग को ढंकने का लम्बा (लंगोट जैसा) कपड़ा 'उग्गहपट्टक' कहा गया है । जांघिया जैसे उपकरण को उग्गहणंतक कह सकते हैं ।
बृहत्कल्प सूत्र उ. ३ में ये दोनों उपकरण साधु को रखने का निषेध है और साध्वी को रखने का विधान है । ये दोनों उपकरण शीलरक्षा के लिए रखे जाते हैं और यथासमय पहने जाते हैं। व्याख्याकारों ने इन दो उपकरणों के स्थान पर छह उपकरणों का वर्णन किया है तथा साध्वी के लिए कुल २५ उपकरणों की संख्या बताई है और साधु के लिए १४ उपकरण कहे हैं । आगमों में संख्या का ऐसा कोई निर्देश नहीं है । भिन्न-भिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न उपकरणों का कथन है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में एक साथ उपकरणों का कथन है परन्तु वहाँ संख्या का निर्देश नहीं है, न ही उस कथन से भाष्योक्त संख्या का निर्णय होता है।
पात्र-लकड़ी, तुम्बा, मिट्टी, इन तीन जाति के पात्रों में से किसी भी जाति के पात्र रखे जा सकते हैं, ऐसा वर्णन अनेक आगमों में स्पष्ट मिलता है किन्तु पात्र की संख्या का निर्णय किसी भी आगमपाठ से नहीं होता है।
१. आचा. श्रु. १, अ. ८, उ. ४ में विशिष्ट प्रतिज्ञाधारी समर्थ भिक्षु के लिए अनेक पात्रों का वर्णन है
'जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवसिए, पाय चउत्थेहि ।'
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