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सोलहवाँ अध्ययन]
[३६९ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं ॥
४०. जो भिक्षु सचित्त पृथ्वी के निकट की भूमि पर मल-मूत्र का परित्याग करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है।
४१. जो भिक्षु जल से स्निग्ध पृथ्वी पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है।
४२. जो भिक्षु सचित्त रजयुक्त पृथ्वी पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है।
४३. जो भिक्षु सचित्त मिट्टी बिखरी हुई पृथ्वी पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है ।
४४. जो भिक्षु सचित्त पृथ्वी पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है।
४५. जो भिक्षु सचित्त शिला पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है।
४६. जो भिक्षु सचित्त शिलाखण्ड आदि पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है।
४७. जो भिक्षु दीमक लगे हुए जीवयुक्त काष्ठ पर तथा अण्डे यावत् मकड़ी के जालों से युक्त स्थान पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है ।
४८. जो भिक्षु दुर्बद्ध, दुनिक्षिप्त, अनिष्कम्प या चलाचल थंभे पर, देहली पर, अोखली पर, स्नानपीठ पर या अन्य भी ऐसे आकाशीय स्थानों पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है।
४९. जो भिक्षु दुर्बद्ध, दुनिक्षिप्त, अनिष्कम्प या चलाचल मिट्टी की दीवार पर, ईंट आदि की भित्ति पर, शिला पर, शिलाखण्ड-पत्थर पर या अन्य भी ऐसे अन्तरिक्षजात स्थानों पर उच्चारप्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है।
५०. जो भिक्षु दुर्बद्ध, दुनिक्षिप्त, अनिष्कम्प या चलाचल स्कन्ध (टांड), फलह, मंच, मंडप, माला, महल या हवेली की छत पर या अन्य भी ऐसे अन्तरिक्षजात स्थान पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है ।
इन ५० सूत्रों में कहे गए स्थानों का सेवन करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है । विवेचन-जहाँ आत्म-विराधना तथा संयम-विराधना होती हो ऐसे स्थानों पर परठने का
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