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___ [निशीयसूत्र प्रायश्चित्त इन सूत्रों में कहा गया है। निषिद्ध स्थानों में परठने सम्बन्धी विवेचन उ. ३ तथा उ. १५ में देखें एवं सूत्र सम्बन्धी अन्य विवेचन उ. १३ में देखें। सोलहवें उद्देशक का सारांश सूत्र १-३ गृहस्थयुक्त, जलयुक्त और अग्नियुक्त शय्या में ठहरना।
४-११ सचित्त इक्षु या इक्षुखण्ड खाना या चूसना। १२ अरण्य में रहने वाले, वन (जंगल) में जाने वाले, अटवी की यात्रा करने वालों से
आहार लेना। १३-१४ अल्पचारित्रगुण वाले को विशेषचारित्रगुण सम्पन्न कहना और विशेषचारित्रगुण
सम्पन्न को अल्प चारित्रगुण वाला कहना ।
विशेषचारित्रगुण वाले गच्छ से अल्पचारित्रगुण वाले गच्छ में जाना। १६-२४ कदाग्रह युक्त भिक्षुत्रों के साथ आहार, वस्त्र, मकान, स्वाध्याय का लेन-देन करना। २५-२६ सुखपूर्वक विचरने योग्य क्षेत्र होते हुए भी अनार्य क्षेत्रों में या विकट मार्गों में विहार
करना । २७-३२ जुगुप्सित कुल वालों से आहार वस्त्र शय्या ग्रहण करना तथा उनके वहाँ स्वाध्याय
की वाचना लेना-देना। ३३-३५ भूमि पर या संस्तारक (बिछौने) पर आहार रखना या खूटी छींका आदि पर
आहार रखना। ३६-३७ गृहस्थों के साथ बैठकर आहार करना या गृहस्थ देखें वहाँ आहार करना।
प्राचार्य आदि के आसन पर पाँव लगाकर विनय किये बिना चले जाना।
सूत्रोक्त संख्या या माप (परिमाण) से अधिक उपधि रखना । ४०-५० विराधना वाले स्थानों पर मल-मूत्र परठना।
इत्यादि दोष स्थानों का सेवन करने वाले को लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है । इस उद्देशक के ३२ सूत्रों के विषय का कथन निम्न आगमों में है, यथासूत्र १-३ स्त्री, अग्नि, पानीयुक्त मकान में ठहरने का निषेध । .
--आचा. श्रु. २, अ. २, उ. ३ तथा बृह. उद्दे. २ ४-११ सचित्त इक्षु व इक्षुखण्ड ग्रहण का निषेध। -आचा. श्रु. २, अ. ७, उ. २ चारित्र की वृद्धि न हो ऐसे गच्छ में जाने का निषेध ।
-बृह. उ.४ २५-२६ योग्य क्षेत्र के होते हुए विकट क्षेत्र में विहार करने का निषेध ।।
-प्राचा. श्रु. २, अ. ३, उ. १ २७-३२ अजुगुप्सित अहित कुलों में भिक्षार्थ जाने का विधान ।
-प्राचा. श्रु. २, अ. १, उ. २ ३८ आचार्यादि के आसन को पांव लगाकर विनय किए बिना चले जाना आशातना है।
-दशा.द.३
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