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[ निशीथसूत्र
इन प्रमाणों के आधार से यह स्पष्ट होता है कि मुँहपत्ति मुख पर बांधना ही मुनि-चिह्न एवं जीवरक्षा के लिए उपयुक्त है । अन्यथा प्रायः सभी साधु-साध्वियों का खुले मुँह बोलना निश्चित है तथा इधर-उधर रख देने से मुनि-चिह्न भी नहीं रहता है । ग्रामादि में चलते समय या विहार आदि में मुखस्त्रिका मुख पर न रहे तो जिनकल्पी आदि के लिए भाष्यादि में इसे मुनि चिह्न की अपेक्षा आवश्यक उपकरण कहना निरर्थक हो जाता है ।
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भगवती सूत्र श. ९, उ. ३२ में आठ पट की मुँहपत्ति का उल्लेख है । समुत्थान सूत्र में भी आठ पट होने का उल्लेख है ।
श्वे. मूर्तिपूजक समाज में चार पट की मुँहपत्ति रखी जाती है किन्तु एक किनारे प्राठ पट भी कर दिए जाते हैं । उसे सदा हाथ में रखते हैं । विहार आदि के समय चोलपट्टक में भी लटका देते हैं । श्वे. स्थानक वासी मुनि पूर्ण रूप से आठ पट करके मुखवस्त्रिका मुख पर बाँध कर रखते हैं । शिवपुराण अध्याय २१ में जैन साधु का परिचय देते हुए मुख पर मुखवस्त्रिका धारण करने का कहा है । यथा -
हस्ते पात्रं दधानाश्च, तुरंडे वस्त्रस्य धारकाः । मलिनान्येव वासांसि धारयंत्यल्प भाषिणः ॥
निशीथभाष्य तथा पिंडनियुक्ति में कहा हैबितियं पियप्पमाणं, मुहप्पमाणेण
कायव्वं ।।५८०५ ।।
- राजेन्द्र कोष भा. ६, पृ. ३३३ मुखवस्त्रिका मुख पर बाँधने से ही मुख प्रमाण बनाने का यह कथन सार्थक हो सकता है । मुखवस्त्रिका की संख्या भी श्रागम में नहीं कही गई है । अतः दो या अधिक आवश्यकतानुसार रखी जा सकती है । व्याख्या ग्रन्थों में एक-एक मुखवस्त्रिका रखना कहा है ।
कम्बल – प्रागमों में अनेक जगह कम्बल का नाम आता है । यह शीत से शरीर की रक्षा के लिए रखा जाता है ।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में जहाँ तीन चद्दर का कथन है, वहाँ अन्य उपधि में कम्बल का नाम नहीं है, इसलिए इसका समावेश तीन चद्दरों में किया जाता है । जो भिक्षु शीत परीषद् सहन कर सकता है वह वस्त्र का ऊणोदरी तप करता हुआ एक सूती चद्दर से भी निर्वाह कर सकता है तथा अचेल भी रह सकता है ।
अथवा वस्त्र की जाति की अपेक्षा ऊणोदरी तप करता हुआ भिक्षु केवल सूती वस्त्र रखने पर कम्बल का त्याग कर सकता है ।
कम्बल को जीवरक्षा का साधन भी माना जाने लगा है जो परम्परा मात्र है, किन्तु आगमसम्मत नहीं है । दशा द. ७ में पडिमाधारी भिक्षु का सूर्योदय से सूर्यास्त तक विहार करने का वर्णन है । जहाँ सूर्यास्त हो जाए वहीं रात्रि भर अप्रमत्त भाव से व्यतीत करने का कथन है ।
बृहत्कल्प उ. २ में साधु को खुले आकाश वाले स्थान में रहना कल्पनीय कहा है, साध्वी को कल्पनीय कहा है । किन्तु वहाँ अप्काय की विराधना होना या कम्बल ओढ़कर रहना नहीं कहा है ।
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