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सोलहवां उद्देशक]
[३५१ चाहिए, क्योंकि मार्ग में अचानक वर्षा आ जाए, जगह-जगह पानी भर जाए, वनस्पति या कीचड़ आदि हो जाए तो वहाँ आहार आदि के अभाव में संयम और प्राणों के लिए संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती है । यदि कहीं नदियों में पानी अधिक आ जाए तो वहाँ नौका मिलना भी सम्भव नहीं है, इत्यादि दोषों का कथन करके आचारांगसूत्र में ऐसे विहार का निषेध किया है। उसी का यहाँ इन दो सूत्रों में प्रायश्चित्त कहा गया है।
दुष्काल के कारण या राजा आदि के द्वेषपूर्ण व्यवहार से संयम-निर्वाह के योग्य अन्य क्षेत्र के अभाव में विकट अटवी का मार्ग पार करके आर्यक्षेत्र में जाना पड़े तो सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है । आचारांग और निशीथ दोनों ही सूत्रों में इसकी छूट दी गई है तथा वैसी परिस्थिति में क्या विवेक करना चाहिए यह भी आचारांगसूत्र में बताया गया है ।
इसके अतिरिक्त मार्ग में जहाँ सेना का पड़ाव हो, दो राजानों का विरोध चल रहा हो, उस दिशा में जाने का भी वहाँ निषेध किया गया है । अतः भिक्षु जहाँ तक सम्भव हो शरीर और संयम में असमाधि उत्पन्न करने वाले मार्ग या क्षेत्रों में विहार नहीं करे । घृणित कुलों में भिक्षागमनादि का प्रायश्चित्त--
२७. जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ।
२८. जे भिक्खू दुगु छियकुलेसु वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुछणं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ।
२९. जे भिक्खू दुगु छियकुलेसु वसहिं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । ३०. जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु सज्झायं उद्दिसइ, उद्दिसंतं वा साइज्जइ । ३१. जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु सज्झायं वाएइ, वाएंतं वा साइज्जइ । ३२. जे भिक्खू दुगु छियकुलेसु सज्झायं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ ।
२७. जो भिक्षु घृणित कुलों से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है।
२८. जो भिक्षु घृणित कुलों से वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है।
___ २९. जो भिक्षु घृणित कुलों की शय्या ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है।
३०. जो भिक्षु घृणित कुलों में स्वाध्याय का उद्देश (मूल पाठ की वाचना देना) करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है।
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